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पौष, वीर नि०सं०२४५६] स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानंद समाश्वासः।तदर्थकरणात्तस्येति चेत्तर्हि सर्वशास्त्रं जानने का भी क्या साधन है ? यदि इसे प्राचार्य तदविधय चात एव शिष्याणामेव न तत्कृतमिति परमपरासे प्रसिद्ध माना जाय तो सीमंधर स्वामी क व्यपदिश्येत पात्रकेसरिणोऽपि वा न भवेत्तेना- कर्तत्व भी उक्त श्लोक के विपयमें आचार्यपरमपरा में प्यन्यार्थ तत्करणात्तेनाप्यन्यार्थमिति न कस्य- प्रसिद्ध है। दोनों ओर कथा समान रूपसे इसके कर्त चित्स्यायन तद्विषयप्रबंधकरणात्पात्रकेसरिण- त्वविषयमें सुप्रसिद्ध है । यदि यह कहा जाय कि सी. स्तदिति चिन्तितं मूलसत्रकारेण कस्यचिद्वव्य- मंधर स्वामीने चूंकि पात्रकेसरी के लिये इसकी सृष्टि पदेशाभावप्रसंगात् । तस्मात्साकल्येनसाक्षात्कृ- की है इस लिये यह पात्रकेसरिकृत है तब तो सर्वशास्त्रत्योपदिशत एवायं भगवतम्तीर्थकरस्य हेतुरिति समूह तीर्थकरके द्वारा अविधेय ठहरेगा और इसलिये निश्चीयते। एतच्चामलाली- ढन्वे कारणमुक्तं। यह कहना होगा कि वह शिष्योंका किया हुआ ही है,
यह सारी चर्चा वास्तवमें अकलंकदेव के मूलसूत्र तीर्थकरकृत नहीं है । ऐसी हालतमें पात्रकेसराका (कारिका)मेंप्रयुक्तहुए अमलालीढं'और 'स्वामिनः' कतत्व भी नहीं रहेगा; क्योंकि उन्होंने दूसरोंके लिये ऐसे दो पदों की टीका है। और इससे ऐसा जान पडता इसकी रचना की। और इसी तरह दूसरोंने और है कि, अकलंदेवने हेतुके 'अन्यथानपपत्येकलक्षण' का दूसरोंके लिये रचना की तब किसीका भी कतत्व इस 'अमलालीढ' विशेषण देकर उसे अंमलों (निर्दोषों) विषयमें नहीं ठहरेगा। इससे तद्विपयक प्रबन्धकी रचना -गणधरादिकों द्वारा आस्वादित बतलाया है और के कारण यह पात्रकेसरिकृत है, इस पर मूलसूत्रकारने साथ ही 'स्वामिनः' पदके द्वारा प्रतिपादित किया है कि
-श्रीअकलंकदेबने-विचार किया है. ..और इसलिये वह 'स्वामिकृत' है । इस पर टीकाकारने यह चर्चा की (वास्तवमें तो) पूर्ण रूपसे साक्षात् करके उपदेश देने है कि यहां 'स्वामी' शब्दसे कुछ विद्वान लोग पात्र
वाले तीर्थकर भगवानका ही यह हेतु निश्चित होता है केसरी स्वामीका अभिप्राय लेते हैं-उस हतलक्षणको और यही अमलालीढत्व में कारण कहा गया है।" पात्रकेसरिकृत बतलाते हैं और उसका हेतु यह देते हैं इस पुरातन चर्चा परसे कई बातें स्पष्ट जानी कि पात्रकेसरी ने चूँकि हेतविषयक विलक्षणकदर्थन जाती हैं-एक तो यह कि अनन्तवीर्य प्राचार्यके नामके उत्तरभाष्यकी रचना की है इसीसे यह हेतलक्षण समय में पात्रकेसरी स्वामी एक बहुत प्राचीन प्राचार्य उन्हींका है। यदि ऐसा ही है-ऐसाही हेतप्रयोग है- समझे जाते थे, इतने प्राचीन कि उनकी कथा आचार्यतबतो वह अशेप विषयकोसाक्षान करनेवाले सीमंधर परमपराकी कथा होगई थी; दूसरे यह कि, त्रिलक्षणस्वामी तीर्थकर कृत होना चाहिये, क्योंकि उन्हों ने ही कदर्थन' नामका उनका कोई प्रन्थ जरूर था ; तीसरे पहले अन्यथानपपन्नत्वं यत्रतत्र त्रयेणकिं । ना यह कि, 'अन्यथानुपपन्नत्वं' नामके उक्त श्लोक को न्यथानुपपन्नत्वं यत्रतत्र त्रयेण किं' इस वाक्यकी पात्रकेसरी की कृति समझने वाले तथा सीमंधरस्वामी सृष्टि की है । यदि यह कहा जाय कि सीमंधर स्वामीनं की कृति बतलाने वाले दोनों ही उस समय मौजूद थे ऐसा किया इसके जाननेका क्या साधन है ? तो और जो सीमंधरस्वामीकी कृति बतलाते थे वे भी उस फिर पात्रकेसरीने त्रिलक्षणका कदर्थन किया इसके का अवतार पात्रकेसरीके लिये समझते थे; चौथे यह