SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त १५४ [वर्ष १, किरण ३ धार्मिक, आर्थिक और कामिक इन तीनों कर्तव्यों ही हो सकता है तथापि अभ्यासरूपसे उनका एकदेश में परस्पर घनिष्ट सम्बंध है-ये एक दूसरेके हितकारी पालन गृहस्थोंके भी बनता है और इसलिये उन्हें भी मित्र हैं , इनमें एक के बिना दूसरा शोभा नहीं पाता। उसका पालन करना चाहिये। इन तीनों प्रकारके कर्तव्योंमें भी धार्मिक कर्तव्य प्रधान वर्तमान में हमारे कर्तव्योंकी जो शोचनीय दशा हैं, जिनको छोड़कर केवल आर्थिक और कामिक कर्तव्य हो रही है और उनकी दुर्व्यवस्थाओंके कारण उत्थान अंकरहित विन्दुओंकी समान निःसार और मनुष्यको के बदले जो हमारा भारी अधःपतन होरहा है उन सब संसार कीचमें ही फंसाने वाले हैं । आर्थिक कर्तव्योंके का भीतरी नग्न दृश्य यदि सामने रक्खा जाय तो ऐसा समयको उल्लंघन कर दिनरात धार्मिक कर्तव्योंमें हीलगा कौन हृदय-हीन होगा जो एकबार अश्रुपात कर उच्च रहना भी गृहस्थोंके लिये चिंताजनक और हास्यास्पद वासे यह न कह उठे कि-हा! विषय कषायों को है । इसी तरह आर्थिक कर्तव्य-विहीन (दरिद्र) पुरुष पुष्ट करना ही अब हमारा धर्म रह गया है ! ईश्वर के कामिक-कर्तव्य भी विडम्बना मात्र है । अतः गृहस्थों और ईश्वर के गुणों का ज्ञान न होते हुए भी को इन तीनों कर्तव्योंका अविरोध रूपसे- परस्पर उनका नाम जप लेना या स्तुतियाँ बोल देना ही विरोध न करके-ही पालन करना चाहिये, तभी उन्हें अब हमारी ईशभक्ति है! अपनी नामवरी और दो प्रत्येक कर्तव्यमें सफलता एवं सिद्धिकीप्राप्ति होसकती दिन की झठी वाहवाही लूटने के लिये सहस्रों रुपया है। इसीसे श्रीमद्वादीभसिंह सूरिने कहा है - पानी की तरह बहा देना ही अब हमारी प्रभावना है ! ॥ परस्परविरोधेन त्रिवर्गो यदि सेव्यते । पैसा कमाने के लिये दस पाँच पुस्तकें पढ़ परीक्षा अनर्गलमदः सौख्यमपवर्गोऽप्यनुक्रमात् ॥ दे लेना ही अब हमारा ज्ञानार्जन है ! कुछ कह सुनकर अर्थात्-धर्म, अर्थ और काम इन तीनोंका यदि अपना मतलब (स्वार्थ) सिद्ध कर लेना ही अब हमारा परस्पर विरोधरहित सेवन किया जाय तो इस लोकमें परोपकार है ! दमन-नीति और कूट-प्रपंचसे प्रजा का बिना किसी विघ्न-बाधाके सुखकी प्राप्ति होगी और सर्वस्व हरण कर ऐश्वर्य भोगना ही अब हमारा क्रमसे अपर्वग (मोक्ष) सुख भी मिल सकेगा। राज्यशासन है ! झठ बोल कर तथा विश्वासघात कर 'पारमार्थिक कर्तव्य' उन्हें कहते हैं जो मनुष्यको अपने जिस तिस तरह पैसा पैदा कर लेना ही अब हमारा विभाव-विपक्षियों पर पूर्ण विजय प्राप्त करानेमें सहायक व्यापार है ! धर्म और अर्थ-क्षतिका ध्यान न रख कर हों, जिनसे आत्माकी स्वाभाविक अनंत शक्तियाँ पूरी मन चाहे अयोग्य पदार्थोंसे इन्द्रियोंको तृप्त कर लेना तौरसे विकसित हो सकें और यह मानव पूर्ण सुखी, ही अब हमारा भोगविलास है ! पशुओं की भाँति गृहभईन , परमात्मा, सिद्ध तथा कृतकृत्य बन सके। मार्गके ज्ञान बिना घणित रीतिसे स्त्री-प्रसंग कर लेना महावत, गुप्ति, समिति, विभावविरति, उम्भावना, ही अब हमारा संभोग है ! और तत्त्वज्ञान तथा संवेग परमसाहस,साम्यभाव, दोष-शुद्धि, परमतप, धर्मध्यान, न होते हुए मी लोभादि-कषायवश ऊँचे ऊँचे वेष और शुक्लध्यान ये पारमार्थिक कर्तव्य हैं । पारमार्थिक धारण कर लेना ही अब हमारा परमार्थ है!!!' कर्तव्यों कर्तव्यों का पूर्णरूपसे पालन यद्यपि मुनि अवस्थामें की इस शोचनीय दशाको देख कर सभी कहेंगे और
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy