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माथ, वीर नि०सं०२४५६ ]
मनुष्य-कर्तव्य
मनुष्य-कर्तव्य
[ लेखक - श्री० पं० मुन्नालालजी विशारद ।
केवल मनुष्य पर्याय में जन्म ले लेने से ही कोई मनुष्य नहीं कहा जा सकता; बल्कि जो मननशील होंहेयादेयके विवेक से विभूषित हों - सभ्य, शिष्ट, स्वपरोपकारी एवं कर्तव्यनिष्ठ हों वे ही सज्जन वास्तवमें मनुष्य कहलानेके अधिकारी हैं। श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ति ने मनुष्य शब्दकी निरुक्ति में कहा हैमण्णंति जदो णिच्चं मरणेण लिउद्या मणुकडाजमा मन्भवाय सव्वेता ते माणुसा भणिदा ।
अर्थात् — जो नित्य ही मनके द्वारा भली भांति हेयउपादेय के विचार करने में निपुण हों - गुणदोषादि के विचार तथा स्मरणादि जिनमें उत्कटरूपसे पाये जावेंऔर जो साथ ही कर्मभूमिकी आदिमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों (कुलकरों) की संतान हों उन्हें मनुष्य कहते हैं ।
'कर्तुं योग्यं कर्तव्यं' -जो करने योग्य हो, जिसे करना चाहिए, जिसके किये बिना मनुष्यको सफलता नहीं मिल सकती उसे कर्तव्य कहते हैं। मनुष्यों के योग्य जो कर्तव्य वह मनुष्य कर्तव्य है । परिस्थियोंकी अपेक्षा मनुष्यकर्तव्य असंख्य हैं; परन्तु जब उन्हें संग्रहनय से प्रहा करते हैं तो वे सब दो कोटियोंमें आजाते हैं-१ लौकिक कर्तव्य और १ पारमार्थिक कर्तव्य ।
लौकिक कर्तव्य वे हैं जो मनुष्य को प्रत्येक लौकिक (आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक और सामाजिक यादि) उन्नति में सफलता दिलावें तथा जिनसे मानव क्रमशः पारमार्थिक कर्तव्य पालन के योग्य बन सकें | वन लौकिक कर्तव्योंके तीन भेद हैं-१ धार्मिक २ आर्थिक और ३ कामिक |
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'धार्मिक कर्तव्य' उन्हें कहते हैं जो अशुभ अर्थात् पाप से निवृत्ति और शुभ अर्थात् पुण्य में प्रवृत्ति कराने में सहायक हों, जिन से कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ) घटे, इन्द्रियलालुपता मिटे और मनुष्य आत्मिक उन्नति करने में समर्थ हो सकें । जीवदया सत्यभाषण, श्रम्य, शील, परिग्रह- परिमाण, प्रशस्त
ध्यान, ईश्वरभक्ति, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप ( उपवासादि), दान, वात्सल्य, प्रभावना, तीर्थयात्रा, परोपकार, और देश, जाति तथा समाजसेवादिक ये सब लौकिक कर्तव्यान्तर्गत धार्मिक कर्तव्य हैं ।
'आर्थिक कर्तव्य' उन्हें कहते हैं जो मनुष्यको धर्म और नीतिसे अविरुद्ध आर्थिक उन्नति कराने में सहाक हों, जिनसे धार्मिक कर्तव्योंके पालनेमें निराकुलता बढे और मनुष्य आत्म गौरव या सुयशके साथ अपना जीवनकाल सुख शांति पूर्वक व्यतीत कर सके । राज्यशासन, वाणिज्य, कृषि, शिल्पकला, विज्ञान, अधिकारसंरक्षण, अध्यापन, मुनीमी, गोपालन तथा नौकरी श्रादिक ये आर्थिक-कर्तव्य हैं।
'कामिक कर्तव्य' उन्हें कहते हैं जो धार्मिक और आर्थिक कर्तव्यों के फलोंको उचित रीतिले उपभोग कराने में सहायक हों और जिनसे मनुष्य भली भांति शारीरिक तथा योग्य पारिवारिक उन्नति कर सकें। कितने ही लोग केवल विषयवासना की तृति को ही काम कर्तव्य समझते हैं परन्तु उनकी यह समझ काम शाखके सिद्धांतोंके विरुद्ध है। भोजन, पान, पीन्द्रियभोग, उपभोग, संभोग ये सब कामिक कर्तव्य हैं।