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________________ भाष, वीर नि०सं०२४५६] मनुष्य-कर्तव्य १५५ स्वीकार करेंगे कि आज कर्तव्य-पथसे हम बहुत दूर जिसके पावन प्रतापसे आज हमें अपने स्वरूपके विचार होरहे हैं हमें यह भी ध्यान नहीं कि हमारे कौन कौन करनेका दुर्लभ अवसर मिला है। अतः जिम तरह हो कर्तव्य हैं, उनका क्या ध्येय है और उनका क्या फल इस जड़ शरीरसे भिन्न अपने चैतन्य स्वरूपकी प्राप्ति है ? सच पूछिये तो हमारा ध्यान है एक मात्र धन करना चाहिये । यह उच्च भावना ही कर्तव्योंकी सफल ताकी जननी है, इसके बिना सर्व कर्तव्य निष्फल हैं। कमाने में, फैशन बनाने में, शरीरकी आज्ञा बजाने में और दुनियाँको रिझाने में-उसे अपने अनफल बनाने कतव्योंक विषयमें जानने योग्य बातें में । तब ऐसी हालतमें उपर्यक्त कर्तव्योंका पालन कैसे हम अपने कर्तव्योंका पालन किस तरह करें, इम का भिन्न भिन्न वर्णन तो इस छोटेसे लेखद्वारा हो हो सकता है ? और जब मनुष्यकर्तव्यों का ठीक नहीं सकता तथापि कर्तव्य-पालनके लिये जिन जिन पालन ही नहीं हो सकता तो फिर हम यथार्थमें मनुष्य बातों की विशेष आवश्यकता है उनका यहाँ दिग्दर्शन भी कैसे कहा सकते हैं ? कदापि नहीं। अतः प्यार कराया जाता है:भाइयो! यदि सचमुच में मनुष्य बनना है तो इस १ कर्तव्योंके पालनमें सद्विचार और दृढ़नाकी बड़ी मिथ्या बद्धिको छोड़ो, ऐसे विपरीत ध्यानको तोड़ा आवश्यकता है। हमें जिस कर्तव्यको करना है उसके अनुष्ठानसे पहले ही यह देख लेना चाहिये और अपनी विचार शक्तिको कर्तव्य-पथ में जोड़ो। किवह कर्तव्य हमारी(द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप) रात दिन शरीरकी गुलामी करने और धन जोड़ने में योग्यताके अनुकूल है या प्रतिकूल, उसके न करने ही मनुष्य जीवन के अमूल्य समय को खो देना से हमारी क्या हानि थी और अब करनेसे क्या मनुष्यता नहीं है-पशुता है । और यदि हम चाहते लाभ होगा, उसका ध्येय क्या है और वह किस हैं कि हम अपने कर्तव्य-पथ पर लगें, सच्चे कर्तव्य तरह किया जा सकता है । इस तरह के विचार को ही सद्विचार' कहते हैं। कार्य प्रारम्भ होनेके निष्ठ बनें और स्वपर-कल्याण करते हुए अपना जीवन बाद बहुतसे विघ्नसमूहोंके उपस्थित होने पर भी सुखसे व्यतीत करें तो सबसे पहली आवश्यकता यह कार्यको अधग नहीं छोड़ना किन्तु उसे पूरा करके है कि हम अपनी भावनाको उच्च बनावें और फिर ही छोड़ना 'दृढना' है। तदनुकूल कर्तव्योंका पालन करें । उच्च भावना रखते धार्मिक कर्तव्य-विषयक सूचनाएँ हुए हमें यह विचारना चाहिये कि हमारा रूप यह २ कोई भी धार्मिक कर्तव्य रूहि, लोकलज्जा, भय, गोरा काला जहरूप शरीर नहीं किन्तु अनंतशक्तियुक्त पाशा अथवा नामवरीकी इच्छासे प्रेरित होकर चैतन्य ही हमारा वास्तविक रूप है, इसकान तो कभी नहीं किया जाना चाहिये । नाश होता है और न कभी नूतन उत्पाद । यद्यपि अनादि ३ जिनसे कषाय और इन्द्रिय-लोलुपता बड़े तथा कालसे विभाव परिणमनके कारण चैतन्य और जड़ परिणामोंमें तीन संश्लेशता उत्पन्न हो वे कर्तव्य शरीर अभिन्न (मिले हुये) से हो रहे हैं तथापि वास्तव कभी भी धार्मिक कर्तव्य नहीं कहे जा सकने। में चैतन्य भिन्न है और जड़शरीर भिन्न है। अनंत- ४ निस्वार्थभावसे परके हित में प्रवर्तन करना ही काल व्यतीत हो चुका, अनंत ही पर्यायें धारण करली परोपकार है। परोपकारी बनने के लिये सभी परन्तु हमें आज तक अपने रूपका बोध नहीं हुआ था, जीवोंमें मैत्री,गणियोंमें प्रमोद, दुःखियोमं करुणा अब किसीभारी पुण्यउदयसे यह उत्कृष्ठ मनुष्यपर्याय और विपरीत विचार वालोंमें माध्यस्थवा रखना और केबलिप्रणीत सद्धर्मकी शरण प्राप्त हुई है, अत्यावश्यक है।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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