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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ३ ५ पवित्र (श्रादि-अंत-विरोध-रहित ) शास्त्रोंका निर- तथा हीन नहीं समझना चाहिये।
न्तर पठन-पाठन, श्रवण और मनन तथा सजन- १५ नित्य भोजन करनेके पहले उत्तम पात्रोंको दान धर्मात्माओं एवं सचे त्यागी बतियोंका समागम, देना चाहिये । यदि वैसे पात्र न मिलें तो दुःखित, इन दो से प्रात्मोन्नतिमें बड़ी सहायता मिलती है। बभक्षित जीवोंके लिये कुछ भोजन निकाल कर
आर्थिक कर्तव्य-विषयक सूचनाएँ रख देना चाहिये। ६ दुष्टोंका मानमर्दन और सजन धर्मात्माओं पर. १६ अपनी शक्तिके अनुकूल एक मासमें अधिकसे विशष अनग्रह रखते हुए न्याय और धर्मसे प्रजा अधिक ऋतुसमयके (सदोषरात्रियोंको छोड़कर) का पालन करना ही राज्यशासन है।
५ दिन ही काम सेवन करना चाहिये। ७ झूठ बोल कर और ठगवृत्तिसे पैसा कमाना व्यापार १७ बीमारीकी हालतमें या भूखे, प्यासे, चिन्तामसित
नहीं अन्याय है। अन्यायके पैसेसे कभी धार्मिक अवस्थामें कामसेवन नहीं करना चाहिये। कार्य सफल नहीं हो सकते, न अन्यायी व्यापारी १८ अति सेवनसे सदा दूर रहना चाहिये और अनंगसुख और शांतिसे अपना जीवन व्यतीत कर क्रीड़ा कदापि नहीं करनी चाहिये । सकता है। अतः सरलता और सत्यवृत्तिसे ही पारमार्थिक कर्तव्य-विषयक सूचनाएँ
व्यापार करना चाहिये। ८ शिल्प-सम्बन्धी कार्य वेही प्रशंसनीय हैं जिनमेंचोरी '
र १९ वस्तुतत्वका भलीभांति ज्ञान होजाने पर ही किसी
पारमार्थिक कर्तव्यको करना उचित है । उद्वेग न की जावे और जिनमें विशेष हिंसा न हो। इसी (अनिष्टजनित चोट या झळा वैराग्य ) होने पर
तरह विज्ञानसम्बन्धी कार्योको भी जानना चाहिये ९ उत्तम बीजको संस्कारित खेतमें समय पर बोने
ज्ञान न होते हुए यकायक किसी ऊँचे पद (मुनि
पद) को धारण कर लेना अति साहस और और भली भांति रक्षा करनेसे ही कृषि कार्यों में
लोकनिंद्य है तथा अपनी आत्माको निंद्यगर्तमें सफलता मिल सकती है।
पटकना है। कामिक कर्तव्य-विषयक सचनाएँ २० अट्राईस मूलगुणों ( ५ महाव्रत, ५ समिति, १० पूर्व पुण्यसे प्राप्त हुये विभव, धन, सम्पत्तिका इस ५ इन्द्रियविजय, ६ आवश्यक और ७ शेष गुण)
सरह उपभोग करना चाहिये जिससे मूल क्षति न का भली भांति निर्वाह करते हुए चारित्र-शुद्धि हो अर्थात् , विभवादिका भोगना पाप नहीं है
करना तथा आत्मानुभवमें मगन रहना, धर्मध्यान परन्तु उनमें मगन होकर धार्मिक और आर्थिक और शुक्ल ध्यान धारण करना और इन सबसे परे कर्तव्योंको भूल जाना पाप है।
.: 'समाधिस्थ हो जाना यही पारमार्थिक कर्तव्यों ११ भोजन वही करने योग्य है जो शुद्ध (अभक्ष्य-दोष
का सार है। रहित) सादा (तीव्रकामोत्तेजना रहित) और
इन सब बातोंकी जानकारीसे हमें उक्त कर्तव्योंके हितकारी हो-प्रकृति विरुद्ध न हो।
पालनमें बड़ी सहायता मिल सकती है। अतः इन पर १२ जल-दुग्धादि शुद्ध कपड़ेसे छान कर ही काममें सविशेषरूपसे ध्यान रखते हुए हमें अपनी शक्ति तथा ___ लाने चाहिये।
योग्यतादिके अनुसार लौकिक और पारमर्थिक दोनों १३ वन और भूषण वे ही धारण करने चाहिये जो
गरण करने चाहिये जो प्रकारके कर्तव्योंका अवश्य पालन करना चाहिये और देश, वय (उम्र), पद, विभव और समयके अनु- उसके लिये अपनी अपनी एक दिनचर्या नियत कर कूल हो। मैले, चटकीले और हिंसज वनोंको लेनी चाहिये।
कदापि नहीं पहिनना चाहिये। १४ भोगोंको भोगते हुये अन्य व्यक्तियोंको तुच्छ देहली-जैनमित्रमयसके वान्टमेटी का पातालजी द्वारा प्राप्त