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________________ माष, वीर नि० सं०२४५६] सुभाषित मणियाँ सुभाषित मणियाँ 40HOR ..0-14 10:05 प्राकृत बंदउ जिंदउ परिकमउ, भाउ मसुदउ जासु । उदयगदा कम्मंसाजिणवरवसहहिणियदिणामणि-पर तमु संजसु अस्थि रणवि, जमणसदिणताम । या तेस हि मुहिदो रत्तो दुढो वा बन्धमणुहदि ॥ -योगीन्द्रदेव। जिसका भाव शुद्ध नहीं है वह चाहे जैसी वन्दना -कुन्दकुन्दाचार्य। 'कर्मप्रकृतियाँ स्वभावसे ही उदयको प्राप्त होती । र करो-खूब हाथ जोड़ कर स्तुति पाठादिक पदो... हैं-समय पर अपना फल देती हैं-ऐसा जिनेन्द्र भग-, " अपनी निन्दा करो और प्रमादादि-जनित दोषों के वानने कहा है उन उदयगत कर्मप्रकृतियों (पर्वोपार्जित मिथ्याकाररूप प्रतिक्रमण भी करो, परन्तु इससे उसके कमों) के फलको भोगता हा जो प्राणी राग, द्वेष या संयम नहीं बन सकता।क्योंकि ये बाझ क्रियाएँ संयम मोहरूप परिणमता है वह नया कर्म और बाँधता है। की कोई गारंटी नहीं हैं-भले ही इनसे संयमका ढोंग भावार्थ-उदयगत कर्मके फलको यदि साम्य भावसे बम जाय-बिना चित्तशुद्धिके तो संयम होता ही नहीं।' भोग लिया आय-उसमें राग, द्वेष या मोह न किया देउण देवलिणवि सिलए,वि लिप्पडणविचिनि। जाय-तो कर्मकी निर्जरा होकर छुट्टी मिल जाती है। अन्यथा, नया कर्म और बंधता है और इस तरह बन्ध अखउ णिरंजणु णाणमउ, सिउ संठिउ समचिति।। की परिपाटी चल कर यह जीवात्मा मथानीकी तरह -परमात्मप्रकाशे उद्धृत। इस संसारचक्रमें बराबर घूमता रहता है । राग, द्वेष 'अपना परमाराध्यदेव न तो देवालय है, न पत्थर और मोहही इसे बाँधने तथा घमाने वाले मंथाननत्रे- की मूर्ति में, न लेपकी प्रतिमा में और न चित्र में; किंतु मथानी की रस्सी-हैं।' वह अक्षय, निरंजन, ज्ञानमय, शिवपरमात्मा समधिल (इसमें संक्षेपसे बन्ध मोर मोक्षका अच्छा रहस्य बतलाया में स्थित है-साम्यभावरूप परिणत हुए मन में ही गया है।) विराजमान रहता है-अन्यत्र नहीं । अतः उसका जहिं भावइ सहि जाहि जिय, जंभावद करि तं जि । र दर्शन पानेके लिये चित्तसेरागद्वेष और मोहको हटाना ' चाहिये, जिन्होंने चिनको विषमतथा मैला बना रक्खा केम्बइमोक्खण अस्थि पर, चित्तहं सुदिण जं जि।। है और इस तरह उम देवका दर्शन नहीं होने देते।' -योगीन्द्रदेव । . हे जीव ! तू चाहे जहाँ जाय-चाहे जिम देश उवासं कुव्वतो प्रारंभ को बरोद मोहादो । अथवा तीर्थक्षेत्रादिका आश्रय ले-और चाहे जो क्रिया सो णिय देहं सोमदिण झाडकम्मलेसं वि।। जब तक चित्तशुद्धि नहीं 'उपवासको करता हुआ जो मनमा गृहकार्यों के औरमोहकी परिणतिनहीं मिटेगी तबतक किसी तरह मोहसे प्रारंभ करता है-आरंभमय के.सब काम भी तुझे मुक्ति मिलने वाली नहीं है । मुक्तिको प्राप्तिका धंधे किया करता है वह उस उपवाससे केवल अपने एक मात्र उपाय वास्तवमें 'चित्तशुद्धि है और चित्त शरीरको ही सुखाता है, कर्मकी ती लेकमान भी उससे शुद्धिका किसी देश अथवा क्रियाकाण्डके साथ कोई निर्जरा नहीं होती । और इसलिये उसे उपवासका अविनाभाव सम्बंध नहीं है।' बाम्तविक फल नहीं मिलना।' शहापा
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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