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________________ - ~- ~ ~ - ~ 480०००० १५८ अनकान्त [वर्ष १, किरण बचना है तो ऐसा यत्न करो जिससे जन्म ही न लेना पड़े मुक्ति हो जाय। "मानीता नटवन्मया तव पुरः हे नाथ ! या भूमिका चिन्तनीया हि विपदामादावेव प्रतिक्रिया । व्योमाकाशखखाम्बराब्धिवसुभिस्त्वत्पीतयेऽद्यावधि, न कृपखननं यक्तं प्रदीप्ते वन्हिना गृहे ॥" पीतोऽसि यदितां निरीक्ष्य भगवन्मत्यार्थितं देहिमा विपदाओंके आनेसे पहले ही उनका प्रतिकारनोचेद् हि कदापि मानय पुनर्मामीटशी भूमिकाम् ।' उनका इलाज-सोच रखना चाहिये। घरमें आग लगने 'हे नाथ ! मैं आपको प्रसन्न करनेके लिये नटकी पर उसे बुझाने के लिये कूप खोदना उचित नहीं हैतरह ८४ लाख प्रकार के स्वॉग भर कर आपके सामने उससे उस वक्त कुछ भी काम नहीं निकल सकता। लाया हूँ-८४ लाख योनियों में नाना प्रकारके शरीर कूप तो कुछ खुदेगा नहीं और घर जल कर राख धारण करने रूप स्वांगको लिये हुए आपके सन्मुख उपस्थित हुआ हूँ-मेरे किसी भी स्वांगसे यदि आप "वग्दारिद्रयमन्यायप्रभवाद्विभवादिह । प्रसन्न हुए हैं तो मेरी प्रार्थना पूरी कीजिये-मझे मक्ति कृशताऽभिमता देहे पीनता न तु शोफतः॥" 'अन्यायसे उत्पन्न होने वाले वैभवकी अपेक्षा दीजिये-; और यदि प्रसन्न नहीं हुए हैं-मेरा कोई . भी स्वांग आपको पसंद नहीं आया है तो भगवन् ! दारिद्र अच्छा है; जैसे शरीर में दुबलापन तो इष्ट है मुझे आज्ञा दीजिये कि 'फिर कभी ऐसे स्वांग भरकर परन्तु वह मोटापन इष्ट नहीं है जो शोफ से-वरम से नहीं लाना।' -उत्पन्न हुआ हो । अर्थात्-अन्यायसे उत्पन्न होने ___(इसमें दोनों ही प्रकारमे अथवा हर पहलू से मुक्ति मांग ली वाली विभूति शोफस्थानीय स्थूलता है, जो कभी गई है और यह कविका खास चातुर्य है।) अभिनन्दनीय नहीं हो सकती।' "तृणं चाहं वरं मन्ये नरादनुपकारिणः । "खोकः पच्छति मे वार्ता शरीरे कुशलं नव । घासो भूत्वा पशन पाति भीरून पाति रणााणे॥" कुतः कुशलमस्माकं गलत्यायुर्दिने दिने ॥" 'मैं तिनकेको उस मनुष्यसे अच्छा समझता हूँ जो • 'लांग मुझसे पूछते हैं कि 'तुम्हारे शरीरमें कुशल अनपकारी है-किसीका उपकार नहीं करता। क्योंकि है ?' परन्तु मेरे शरीरमें कुशल कहाँ से हो, जब कि तिनका घासके रूपमें तो पशुओंका पालन करता है आयु दिन दिन घटती जाती है और मैं कालके मुँहमें और संग्राममें उन कायरोंकी प्राण रक्षा करता है जो चला जा रहा हूँ ?' दाँत तले तिनका दबा कर शत्रुके सामने आगये हों।' "मृत्योविभेषि किं मूढ ! भीतं मुंचति नो यमः। "अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसां । अजातं नैव गृहाति कुरु यत्नमजन्मनि ।" उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥" 'हे मूढ ! मृत्युसे क्या डरता है ? डरे हुए प्राणी 'यह अपना है और यह पराया,ऐसी गणना क्षुद्र को काल छोड़ता नहीं है। हाँ, जो जन्म नहीं लेता हृदय व्यक्तियों की होती है। परन्तु जो उदारचरित हैं उसे काल पकड़ता नहीं। अतः कालकी चपेटसे यदि उनकी दृष्टिमें सारी पृथ्वी ही उनका मुटुम्ब है।'
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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