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________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण समर्थ हैं । फिर भी यह पत्र अपनी एक जदी ही विशे- और इसका सर्वत्र प्रसार करने के लिये उनका कर्तव्य पता रखता है और इसलिये इसे नीचे अनुवाद-सहित कितना अधिक हो जाता है । उन्हें चाहिये कि वे अब प्रकट किया जाता है। समाजकं विद्वान और श्रीमान तककी अपनी उपेक्षा पर लज्जित हो कर इस ओर देखें तथा सोचें कि, जब उनके इस चार महीनेके सारी शक्ति को केंद्रित करें और इसे इसके नाम तथा बालक 'अनकान्त' को उच्च कोटिके अजैन विद्वान भी नीति के अनुरूप समन्ततः अभिनन्दनीय एक आदर्श इतनी गौरव भरी दृष्टिसे देख रहे हैं और इससे भविष्य पत्र बना कर छोड़ें। अस्तु; । पै महाशय का वह पत्र में अपनी जिज्ञासापूर्ति की बहुत कुछ आशा लगाए इस प्रकार है:हुए है तब इस सब प्रकारसे उन्नत तथा सफल बनाने मंजेश्वर-१९-३-१९३० अर्थात-'अनुरागके साथ भेजे हुए आपके 'अनेभवता सानरागं यत्महितं च मदन्तिकम् । कान्त' पत्रकी मुझे चार किरणें मिलीं। इस पत्रका तदनेकान्तपत्रस्य प्राप्तमंशुचतुष्टयम् ॥ १॥ जैसे जैसे मैं पढ़ता गया हूँ तैसे तैसे अधिकाधिक तुष्टस्तुष्टतरोस्मीदं यथाधीतं मया तथा। संतुष्ट होता गया हूँ । अतः इसके लिये प्रसन्न चित्तसे गृहाणार्य मुदा दत्तान्धन्यवादाश्च तत्कृते ॥२॥ दिये हुए मेरे धन्यवादोंको स्वीकार कीजिय ।। कान्तिमनोहराब मर्वेपि लेखा बोधमयाश्च ते। मान् चंद्रमाका तेज जिस प्रकार मनोज्ञ और अमृतमय कान्तस्येन्दोर्यथा तेजो मनोज्ञं च सघामयम् ॥३॥ होता है उसी प्रकार इस पत्रके सभी लेख मनाहर नास्त्यत्र किंचिन्जिनजन्मभूमी और बोधमयी हैं ।। जिनेन्द्रकी इस जन्मभूमि (भारतजैनाध्वदर्शीति मुलभ्यपत्रम् । वर्ष) में जैनमार्ग को दिखलाने वाला कोई भी सुलभ्य विश्रंभणीयं च भवत्यनेन . तथा विश्वसनीय पत्र नहीं है' इम निन्दा अथवा कलक को, निःसन्देह, आज इस पत्र ने दूर कर दिया है। दूरीकृता वै पचनीयताध ॥ ४ ॥ अपनी अभ्यासकुटीके एकान्तमें विद्वान लोग जिम वाञ्छितं यच्च विद्वद्भिरेकान्तेभ्यासकोष्ठ के।। चीजकी वांछा किया करते हैं वह अनकान्तमें प्राम है तदवातमनेकान्ते लब्धकामा भवन्तु ते ॥ ५॥ अतः इस पाकर वे लोग अपनी कामना पूरी करें। प्रत्यमगनले येषां नोपशाम्यति हत्तुष।। पश्चिमी मगजलमें जिनकेंहदयकी प्यास नहीं बुझती उन जिज्ञासनामत्र तेषामनेकान्ते प्रशाम्यतु ।।६॥ जिज्ञासुत्रोंकी वह प्यास इस 'अनेकान्त' में शान्तताका विश्वेषां धर्ममार्गाणं प्रभवोन्तत्र यो विभुः। प्राप्त होवे ॥ संपूर्ण धर्ममार्गोका जो आदि और अन्त है तस्यानन्तस्य कृपया चिरायुष्यं भवेदिदम् ॥७॥ उस अनन्त विभु की कृपासे यह पत्र चिरायु होवे ।। इति भवनिरन्तरस्नेहाकांक्षी पापका निरन्तर स्नेहाकांक्षी M. Govind Pai एम. गोविन्द पै kakkar.
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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