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________________ १७२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ की तरह प्रवृत्ति कराने वाले सर्वज्ञ बुद्धदेवने इसी शून्यवादी हैं; योगाचार बालार्थको ५.न्य मानते हैं । प्रालय-विज्ञानको शरीरसे भिन्न आत्मा बताया है। सौत्रान्तिक वाह्यमें वस्तुको शून्य मानते हुए विज्ञानाकारण ? शरीरको ही सब कुछ मानने वाले अज्ञानी नुमेय मानते हैं । वैभाषिक बाह्य वस्तुको प्रत्यक्ष मानते एक ही बार सीधे आत्मतत्व पर नहीं पहुँच सकते थे। हैं।शून्य,क्षणिक,दुःखरूप तथा स्वलक्षणकी मान्यता सदासे ही उपदेष्टाओंकी यह नीति रही है कि अधि- सबमें एक सी है। कारीके अनुसार ही उसे उपदेश देनेका प्रयास किया इनकी शिष्यपरम्परा भी इसी नामसे प्रसिद्ध हुई। करते हैं, जो बात सहसा उसकी समझमें न पा सके ये सबके सब असतसे सत् पदार्थकी उत्पत्ति मानते हैं उसका वे सहसा उपदेश भी नहीं दे डालते। इसलिये वैनाशिक शब्दसे अन्य शास्त्रोंमें इनका परिचय देहको ही सब कुछ मानने वाले उन शराबी कबाबी दिया जाता है। नास्तिकोंके लिये सहसा यह समझना मुश्किल था इस मतके संन्यासी, शांकर-सम्प्रदायके संन्यासिकि 'सचिदानंद' परमात्मा है, जिसने सम्पूर्ण विश्वमें योंकी तरह शिखासहित सिरका मुण्डन कराते हैं। अपने प्रकाशको फेला रखा है; क्योंकि वे जबतक जीवहिंसाके भयसे रातमें भोजन नहीं करते । और अपने पूर्व पापोंके प्रायश्चित्त करके अधिकारी नहीं बन संन्यासियोंकी तरह ये भी एक विशेष प्रकारके कमलेते तब तक विशुद्ध आत्माका उपदेश देना अधिकारी ण्डलसे ही पात्रोंकी आवश्यकता पूरी करते हैं । अंगाके नियमका उच्छेद करना था । इसीलिये आलय-वि- च्छादनके लिये चीर वसन होता है । पीले रंगेहुए शानको ही आत्मा बताया था कि इसमें जीवात्माकी कपडे पहिनकर ही धर्मकृत्य किया करते हैं । चाहे कुछ २ झलक आती रहती है। किन्तु उनका यह उसका स्वरूप कुछ भी हो, परन्तु मोक्षको इन्होंने लोगों असली सिद्धान्त नहीं था। के सामने रक्खा है। रागद्वेषादिके विविध विज्ञान की अपनी इच्छाके अनुकूल वस्तु मिलने से सुख तथा वासनाओंके उच्छेदको ये मोक्ष मानते हैं । क्योंकि प्रतिकूल मिलनेसे जो दुखानुभव होता है सो सब वेद- उस समय लोग मोक्षके स्वरूपको समझनेकी प्रायः ना-स्कन्ध कहाता है। ऐसी ही योग्यता रखते थे। यह बौद्ध दर्शनके पदार्थोंका वस्तुके साथ चक्षुरादि इन्द्रियोंका सम्बन्ध होने संक्षिप्त संग्रह समाप्त हुआ। पर उसके नाम जाति आदिका जो ज्ञान होता है वह संज्ञा स्कन्ध कहाता है। जैन-दर्शन चित्तरूप पात्मा पर रहने वाले राग, द्वेष, मोह, यह दर्शन अर्हन् भगवानका प्रधानरूपसे उपासक महामोह, धर्माधर्म आदिक, संस्कार-स्कन्धके नामसे है, इसलिये कोई कोई दार्शनिक इसको 'आहत-दर्शन' प्रसिद्ध हुए। हम पहले ही कह चुके हैं कि प्रालय- भी कहते हैं । विज्ञानको ही भगवान बुद्धने चित्त या बात्मा कहा है, संसारके त्यागी पुरुषोंको परम हंसचा सिखाने बाकी स्कन्धोंको चैत्य कहते हैं । चित्त और चैत्यका के लिये त्रिगुणातीत पुरुष विशेष परमेश्वरने ऋषमातथा भूत और भौतिकोंका समुदाय लोक यात्रा का वतार लिया। भागवत आदि पुराणों में आपकी महिमा निर्वाह करता है पर इसमें दुखरूपताके सिवा और कूट कूट कर भरी हुई है । जगत्के लिये परमहंसा कुछ भी नहीं है। का पथ दिखाने वाले आप ही थे। हमारे जैनधर्मावभगवान बुद्धदेवके अनेकों शिष्य थे। उनका उपदेश लम्बी भाई आपको 'आदिनाथ' कह कर स्मरण करते सबके लिये भेदभाव रहित होता था, तो भी अपनी हुए जैनधर्म के आदि प्रचारक मानते हैं। अपनी बुद्धिदेवीकी कपासे इनके प्रधान चार शिष्य भगवान् ऋषभदेवने सुखप्राप्ति का जो रास्ता चारपयों के अनुगामी हुए। इनमें से माध्यमिक केवल बताया था वह हिंसा भादि भयंकर पापोंके सपन
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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