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माघ, वीर नि०सं०२४५६] भारतीय दर्शनशास्त्र
१७३ तिमिरमें अदृष्टसा हो गया। उसके, शोधनके लिये किसी द्रव्य आदिको नहीं। अहिंसा धर्मके अवतार भगवान महावीर स्वामीका जो शुन्य कहा जाता है उसका मतलब कदाचित् आविर्भाव हुआ जिन्हें जैन लोग श्रीवर्धमान प्रभु कह शून्य कहने से है, केवल शून्य कहनेसे नहीं है। कर श्रद्धांजलि समर्पित करते रहते हैं।
क्योंकि परिदृश्यमान विश्व कथंचिद् परिणाम या ___महावीर स्वामीके उपदेशोंको सूत्रोंके रूपमें प्रथित पर्यायरूपसे शुन्य अनित्य अथवा असत् कहाया जाकरने वाले प्राचार्याने महावीर स्वामीके अवतरित होने सकता है, द्रव्यत्व रूपसे नहीं कहाया जासकता। का प्रयोजन बताया है कि, "सव्व जगा रक्खण दया यह दर्शन एक द्रब्य पदार्थ ही मानता है। गुण ट्राम पवयणं सु कहियं भगवया"-भगवान् महावीर और पर्यायके आधारको द्रव्य कहते हैं । ये गुण और स्वामीने व्यथित जीवोंके करुण-क्रन्दनसे करुणाद्रचित्त पर्याय इस द्रव्यके ही आत्मस्वरूप हैं, इसलिये ये होकर सब दुखीजीवोंकी रक्षा रूप दयाके लिये सार्व- द्रव्यकी किसी भी हालतमें द्रव्यसे जुदा नहीं होते। द्रव्य जनीन उपदेश देना प्रारम्भ किया था।
के परिणत होनेकी हालतको पर्याय कहते हैं, जो सवा ___यह मैं पहले ही कह चुका हूँ कि भगवान बद्धदेवने न कायम रह कर प्रतिक्षणमें बदलता रहता है। जिससे विश्वको दुख रूप कहते हुए क्षणिक कहती बार यह द्रव्य रूपान्तरमें परिणत होता है । अनुवत्ति तथा ज्याविचार नहीं किया था कि इससे अनेक अनेक लाभोंके वृत्तिका साधन गुण कहलाता है, जिसके कारण द्रव्य साथ क्या २ दोष होंगे। उनका उद्देश विश्वका वैराग्य सजातीयसे मिलते हुए तथा विजातीयसे विभिन्न प्रतीत की तरफ ले जाने का था जिससे अनाचार अत्याचार होते रहते हैं। तथा हिंसाका लोप हो जाय । महावीर स्वामीने बुद्ध- इसकी सत्तामें इस दर्शनके अनुयायी सामान्य देवके बनाये हुए अधिकारियोंकी इस कमीको पूरा करने विशेषके (पृथक) मानने की कोई पावश्यकता नहीं की ओर ध्यान दिया। इन्होंने कहा कि, अखिल पदार्थों समझते । को क्षणिक समझकर शुन्यको तत्वका रूप देना भयंकर द्रव्य एक ऐसा पदार्थ इस दर्शनने माना है जिसके भूल करना है । जब सब मनुष्य शकल सूरनमें एकसे माननेपर इससे दूसरे पदार्थके माननेकी आवश्यकता ही हैं तब फिर क्या कारण है कि कोई राजा बनकर नहीं रहनी, इसलिये इसका लक्षण करना परमावश्यक शासन कर रहा है और कोई प्रजा बना हुआ हुक्म बजा है। रहा है । किसीमें कोई खबियां विशेष प्रकार से पायी श्रीमान् कुन्दकुन्दाचार्य्यन अपने 'प्रवचनसार' में जाती हैं, किसीको वह बातें प्रयास करने पर भी नहीं द्रव्यका लक्षण यह किया है किमिलतीं । इसमें कोई कारण अवश्य है । वर्तमान जगत * अपरित्यक्तस्वभावेन उत्पादव्ययध्रुवत्वसंबद्धम । को देखकर मेरी समझमें आता है तो यही आता है कि गुणवच सपर्यायम् यत्तद्र्व्यमिति ब्रुवन्ति ॥ ३॥ शरीरसे जुदा, अच्छे बुरे कोंके शुभाशुभ फलका अर्थात-जो अपने अस्तित्वके स्वभावको न छोड़भोक्ता, शरीरको धारण करनेवाला कोई जरूर है । उस कर, उत्पाद और व्यय तथा ध्रुवतासे संयुक्त है एवंगुण के रहनेसे यह शरीर चैतन्य रहता है, उसके छोड़ देने तथा पर्यायका आधार है सो द्रव्य कहा जाता है। से मृतक कहलाता है। वह चैतन्य शरीरके जीवनका यही लक्षण तत्वार्थसूत्रमें भी किया है कि "गुणकारण होनेसे जीव शब्दसे बोला जाता है । क्षण क्षण पर्यायवद्र्व्यम्" " उत्पादव्ययधौळयुक्तं सत." में तो इस परिदृश्यमान जगतके परिणाम हुश्रा करते यह द्रव्य जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधमोस्तिहैं। इस लिये परिणाम ही प्रतिक्षण होते रहने के कारण काय, अकाशास्तिकाय, पद्गलास्तिकाय, काल इन क्षणिक कहला सकता है। क्षणिक कहने वालों का . वास्तविक मतलब परिणामको क्षणिक कहनेका है दूसरे * यह झेमाधिकारमें कही हुई गापा का छायानुवाद है। सम्भावक