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________________ १७४ अनकान्त [वर्ष १, किरण ३ भेदोंसे छह प्रकारका होता है।सावयव वस्तुके समूहको न्द्रियोंको प्राप्यकारी कहता है । इन्द्रियों के भेदसे उन अस्तिकाय कहते हैं। कालको बानी छोड़ शेष द्रव्य के अनुसार इसके भी भेद होते हैं। सप्रदेशी हैं, इसलिये जैनन्यायमें कालको वर्जकर, सब जैनी लोग व्यवहारके निर्वाह करने वाले प्रत्यक्षको के साथ अस्तिकाय शब्दका प्रयोग किया गया है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। इसकादूसरा नाम मति___श्रीयुत कुन्दकुन्दाचार्यने आत्माको अरूप, अगंध, ज्ञान भी है, यह इसके भेदोंके साथ कह दिया गया है। अध्यक्त, पशब्द, अरस, भूतोंके चिन्होंसे अग्राह्य, अब मय भेदोंके पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है ।जो निराकार तथा चेतनागणवाला अथवा चैतन्य माना है। प्रत्यक्ष किसी भी इन्द्रियकी सहायता न लेकर वस्तुका ___ रूप, रस, गंध, स्पर्शगुणवाले तेज, जल, पृथिवी, अनुभव करले वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहाता है, यही वायुका 'पुद्गल' शब्दसे व्यवहार होता है। क्योंकि वास्तविक प्रत्यक्ष कहने योग्य है। बाकी प्रत्यक्ष तो ये पूरण गलन स्वभाववाले होते हैं। लोकयात्राके लिये स्वीकार किया है। पुद्गल द्रव्य स्थूल और सूक्ष्म भेदसे दो प्रकारका यह विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष तथा सकल पारहोता है उसके सूक्ष्मपनेकी हद परमाणु पर जाकर होती मार्थिक प्रत्यक्ष भेदसे दो प्रकारका होता है। जो प्रत्यक्ष है । तथा परमाणुओंके संघात भावको प्राप्त हुए पृथिवी पूर्वोक्त प्रकारसे रूपी पदार्थोंका ही अनुभव कर सकता आदिक स्थल कहलाते हैं। हो वह अरूपी पदार्थों के अनुभवसे हीन होनेके कारण ___ जीव और पुद्गलोंकी गतिमें सहायकको 'धर्म' विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहाता है। कहते हैं तथा गतिप्रतिबन्धक 'अधर्म के नामसे पुकारा जो तीनों कालोंमें से किसी भी कालके रूपी अरूजाता है। पी प्रत्येक वस्तुका अनुभव कर लेता है वह सकल अवकाश देनेवाले पदार्थको 'आकाश' कहकर पारमार्थिक प्रत्यक्ष होता है । इसका दूसरा नाम केवल बोलते हैं। द्रव्यके पर्यायोंका भी परिणमन करनेवाला ज्ञान भी है। इस ज्ञानवाले कंवली कहाया करते हैं । 'काल' कहलाता है। यही ज्ञानकी चरमसीमा है । यह बिना मुक्त पुरुषोंके ___ यह छह प्रकार के द्रव्योंका भेद लक्षण-सहित दिखा- दूसरेको हो नहीं सकता। या गया है। सम्पूर्ण वस्तुजान इन ही का प्रसार है, अवधि और मनःपाय इन दो भेदोंसे विकल ऐसा इस दर्शनका मत है। पारमार्थिक प्रत्यक्ष दो प्रकारका होता है। जैनदर्शनका प्रमाण भी वेदान्त सिद्धान्तसे मिलता जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे बिना जुलता है । इसके यहाँ अपना और पर पदार्थका आप इन्द्रियोंकी सहायताके रूपी पदार्थोंको समर्याद जाने हीनिश्चय करने वाला,स्वपर प्रकाशक ज्ञान ही 'प्रमाण' वह अवधिको लिये हुए होनेके कारण अवधि पारमाकहलाता है तथा इसका आत्मा शब्दसे भी व्यवहार र्थिक प्रत्यक्ष कहाता है। होता है। क्योंकि यही ज्ञान प्रात्मा है। यह प्रत्यक्षतथा अन्य जीवोंके मानसिक विषय बने हुए रूपी पदापरोक्ष भेदसे दो प्रकारका होता है। सांव्यवहारिक थों के पूर्वोक्त प्रकारके अनुभव को मनःपर्याय विकल और पारमार्थिक भेदसे प्रत्यक्ष भी दो तरहका कहा पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं। गया है। इन्द्रिय और मनकी सहायतासे जो ज्ञान इस तरह यह पारमार्थिक प्रत्यक्ष अवधि, मनःहोता है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहाता है। चक्षु पर्याय तथा केवल, इन तीन शानोंमें समाप्त होजाता है। और मन तो विषयको दूर रहने पर भी अनुभव कर जो किसी भी रूपमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षज्ञानकी लेते हैं परन्तु बाकी इन्द्रिय विषयकी समीप प्राप्ति होने सहायतासे हो वह झान परोक्ष कहा जाता है। वह स्मपर ही संयुक्त होनेसे कर सकते हैं। इस लिए जैनागम रण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और भागमभेदसे मन और चक्षुको भप्राप्यकारी तथा बाकी चारोंझाने- पाँच प्रकारका होता है।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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