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________________ माष, वीर निःसं०२४५६] भारतीय दर्शनशास्त्र १७५ इनके जो लक्षण अन्य शाखोंने किये हैं उनसे का मति श्रुतज्ञान होने पर भी उसके तमाम धर्मोका मिलते जुलते ही जैन शास्त्रने भी किये हैं । इस लिये ज्ञान नहीं हो सकता । उस एक अंशके अनुभवका वे सबमें प्रसिद्ध हैं । अतएव अनुमान आदि के लक्षण निरूपण, नयसे सुचारु रूपमें हो जाता है। आदि यहाँ देनकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। द्रव्य मात्रको ग्रहण करने वाला तथा गुण और ____ यही परोक्ष ज्ञान श्रुतझानसे भी व्यवाहत होताहै। पर्याय मात्रको प्रहण करने वाला नय क्रमसे द्रव्याइस प्रकार प्रमाण माना हुया ज्ञान अपने प्रमतिभेदोंको र्थिक और पर्यायार्थिक कहलाता है। भी साथ लेकर (१) मति (२) श्रुत (३) अवधि (४) नैगम, संग्रह और व्यवहार नयके भेदसे तीन मनःपर्याय और (५) केवल इन पाँच ज्ञानोंके अन्दर प्रकारका द्रव्यार्थिक होता है। इसी तरह ऋजुसूत्र, गतार्थ हो जाता है। अन्य दर्शनोंने किसीको नित्य और शब्द, समभिरूढ और एवंभत यह चार प्रकारका किसीको अनित्य माना है, पर यह दर्शन कहता है कि:- पर्यायार्थिक नय होता है। " "प्रादीपमाव्योमसमस्वभावः वस्तुका प्रत्यक्ष करती वार आरोप तथा विकल्पस्यादवादमद्रानति भेदि वस्तु ।। को 'नैगम'नय प्रहण करता है । एकके ग्रहणमें तज्जा तीय सबका ग्रहण करने वाला 'संग्रह' नय होता है। तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यद् पृथक पृथक् व्यवहारानुसार ग्रहण करने वाला 'व्यवइति त्वदाज्ञा द्विषतां प्रलापाः ॥" हार'नय है । वर्तमान पर्यायको ग्रहण करना ऋजुसूत्र' यह बात नहीं है कि आकाश नित्य हो, यह और नयका कार्य है । व्याकरणसिद्ध प्रकृति, प्रत्यय लिंग दीपक दोनों ही एकसे स्वभाव वाले हैं । दोनों ही आदिके ग्रहण करने वाले को 'शब्द' नय कहते हैं। क्यों ? कोई भी चीज उस स्वभावका अतिक्रमण नहीं पर्याय वाचक शब्दोंकी व्युत्पत्तिके भेदसे भिन्न अर्थों कर सकती, क्योंकि सबके मुँह पर स्यावाद यानी अने- को ग्रहण करने वालेका नाम 'समभिरूढ' नय है । कान्त स्वभावकी छाप लगी हुई है। जो किसी को अन्वयार्थक संज्ञा वाले व्यक्तिका उस कामके करती नित्य पुनः किसीको अनित्य कहते हैं वे अकारण जैन वार ग्रहण करने वाला 'एवंभूत' नय है। शास्त्र के साथ द्वेष करते हैं। ये नय प्रमाणोंको वस्तुओंका अनुभव करती बार ___ स्याद्वाद शब्दमें स्यान् यह अनेकान्तरूप अर्थका तदंग होकर सहायता पहुंचाते हैं। इस लिये तत्त्वार्थकहने वाला अव्यय है ? अत एव स्याद्वादका अर्थ सूत्रकारने वस्तुके निरूपणमें एक ही साथ इनका उपअनेकान्तवाद कहा जाता है । परस्पर विरुद्ध अनेक योग माना है। धर्म, अपेक्षासे एक ही वस्तुमें प्रतीत होते हैं। जैसे इसी ताह वस्तुके समझाने के लिये नाम, स्थापना द्रव्यत्व रूपसे नित्यता तथा पर्यायरूपसे अनित्यता द्रव्य और भाव निक्षेपका भी उपयोग होता है। प्राणिप्रत्येक वस्तुमें प्रतीत होती है । इसी को 'अनेकान्तवाद' में यह सिद्धान्त व्याकरण महाभाष्यकारकी “चतुष्टयी कहते हैं । यानी एकान्तसे नित्य, अनित्य आदि कुछ शब्दानां प्रवृत्तिः" से मिलता जुलता है। साधारणतः भी न हो किन्तु अपेक्षासे सब हों। कोई कोई विज्ञ हैं संज्ञाको 'नाम' तथा झठी साची पारोपनाको स्थापना' वे इसे अपेक्षावाद भी कहते हैं। एवं कार्यक्षमको 'द्रव्य और प्रत्युपस्थित कार्य या ____ यह दर्शन प्रमाण और नयसे पदार्थकी सिद्धि पर्यायको 'भाव' कहते हैं। मानता है। प्रमाण तो कह चुके हैं अब नयको भी जैनतंत्र वस्तुके निरूपणमें इतने उपकरणोंकी अपेनिरूपण करते हैं। सा रखने वाला होनेके कारण प्रथम कक्षाके लोगोंके अनन्त धर्म वाले वस्तुके किसी एक धर्मका अनु- लिये दुरूह सा हो गया है, पर इसके तत्वको समझमें भव कर लेने वाले शानको नय कहते हैं क्योंकि वस्तु मा जानेके बाद कोई कठिनता नहीं मालूम होती।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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