________________
मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६] अनेकान्तवादकी मर्यादा करें तो इससे हमें क्या लाभ पहुँचेगा अथवा हमारे में इन दो तत्त्वोंका प्रयोग करना शक्य नहीं समझते व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक जीवनमें क्या फरक उन्हें या तो आध्यात्मिक कहलानेवाले जीवनको धारण पड़ेगा ? और यह सब पूछना है भी ठीक, जिसका करना चाहिए और या अपना नाम पशुसंख्यामें गिना उत्तर देना उनके लिये असंभव हो जाता है। देना चाहिए । इस दलीलके फलस्वरूप अंतिम प्रश्न!
इसमें संदेह नहीं कि अहिंसा और अनेकान्तकी यही होता है कि तब इस समय इन दोनों तत्वोंका चर्चावाली पोथियोंकी, उन पोथीवाले भंडारोंकी, उनके उपयोग व्यावहारिक जीवनमें कैसे किया जाय? इसका रचनेवालोंके नामोंकी तथा उनके रचनेके स्थानोंकी उत्तर देना यही अनेकान्तवादकी मर्यादा है। इतनी अधिक पूजा होती है कि उसमें सिर्फ फूलोंका जैन समाजके व्यावहारिक जीवनकी कुछ समही नहीं, किन्तु सोने चांदी तथा जवाहरात तकका ढेर स्याएँ ये हैं:लग जाता है, तो भी उस पजाके करने तथा कराने- १ समप्र विश्वके साथ जैनधर्मका अमली मेल वालोंका जीवन दूसरों जैसा प्रायः पामरहीनज़र आता कितना और किस प्रकारका हो सकता है ? . है, और दूसरी तरफ हम देखते हैं तो यह स्पष्ट नजर २राष्ट्रीय आपत्ति और संपत्तिके समय जैनधर्म
आता है कि हिंसाकी सापेक्ष सूचना करनेवाले गांधीजी- कैसा व्यवहार रखनेकी इजाजत देता है ? के अहिंसा तत्त्वकी ओर सारी दुनिया देख रही है ३ सामाजिक और सांप्रदायिक भेदों तथा फूटोंको
और उनके समन्वयशील व्यवहारके कायल उनके मिटानेकी कितनी शक्ति जैनधर्म में है ? प्रतिपक्षी तक होरहे हैं । महावीरकी अहिंसा और अने- यदि इन समस्याओंको हल करनेके लिए अनेकांत दृष्टिकी डौंडी पीटनेवालोंकी ओर कोई धीमान् कांतदृष्टि तथा अहिंसाका उपयोग हो सकता है तो
आंख उठाकर देखता तक नहीं और गांधीजीकी ओर वही उपयोग इन दोनों तत्त्वोंकी प्राणपूजा है और यदि सारा विचारकवर्ग ध्यान दे रहा है । इस अंतरका ऐसा उपयोग न किया जा सके तो इन दो तत्त्वोंकी कारण क्या है ? इस सवालके उत्तरमें ही सब कुछ पजा सिर्फ पाषाणपजा या मात्र शब्दपूजा होगी । श्राजाता है।
___ परन्तु मैंने जहाँ तक गहरा विचार किया है उससे अब कैसा उपयोग होना चाहिए ? यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उक्त तीनों ही नहीं किन्तु
दूसरीभी वैसीमब समस्याओंका व्यावहारिक खुलासा, अनेकान्तदृष्टि यदि आध्यात्मिक मार्गमें सफल हो यदि प्रज्ञा है तो, अनेकान्तदृष्टिकं द्वारा तथा अहिंसा सकती है और अहिंसाका सिद्धान्त यदि आध्यात्मिक के सिद्धान्तकं द्वारा पूरे तौरस किया जा सकता है । कल्याणसाधक हो सकता है तो यह भी मानना चाहिए उदाहरणके तौर पर जैनधर्म प्रवृत्ति मार्ग है या कि ये दोनों तत्त्व व्यावहारिक जीवनका श्रेय अवश्य निवृत्तिमार्ग ? इस प्रश्नका उत्तर, अनेकान्तदृष्टिकी कर सकते हैं। क्योंकि जीवन व्यावहारिक हो या श्रा- योजना करके, राष्ट्रीय कार्यमें यों दिया जा सकता है ध्यात्मिक पर उसकी शुद्धिके स्वरूपमें भिन्नता हो ही कि, जैनधर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति उभय मार्गावलम्बी नहीं सकती और यह हम मानते ही हैं कि जीवनकी है। प्रत्येक क्षेत्रमें जहाँ सेवाका प्रसंग हो वहाँ अर्पण शुद्धि अनेकान्तदृष्टि और अहिंसाके सिवाय अन्य की प्रवृत्तिका आदेश करनेके कारण जैनधर्म प्रवृत्तिप्रकारसे हो ही नहीं सकती। इसलिए हमें जीवन व्या- गामी है और जहाँ भोगवृत्तिका प्रसंग हो वहाँ निवृत्ति वहारिक या आध्यात्मिक कैसा ही पसंद क्यों न हो पर का आदेश करनेके कारण वह निवृत्तिगामी भी है। यदि उसे उन्नत बनाना इष्ट है तो उस जीवनके प्रत्येक परन्तु जैसा आजकल देखा जाता है भोगमें-अर्थात् क्षेत्रमें अनेकान्तदृष्टिको तथा अहिंसा तत्त्वको प्रज्ञापूर्वक दूसरोंसे सुविधा ग्रहण करनेमें-प्रवृत्ति करना और लाग करना ही चाहिए। जो लोग व्यावहारिक जीवन- योगमें-अर्थात दूसरोंको अपनी सुविधा देनमें-नि