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भनेकान्त
[वर्ष र, किरण र विपत्ति के समय योग्य मंत्रिमंडल ही राष्ट्र जाते हैं । तथा राजा की रक्षा करता है-यहाँ तक कि प्रजातंत्र यद्यपि कोष राज्यसत्ता का मुख्य अंग ही नहीं राज्य भी बिना मंत्रिमंडल के नहीं चल सकते, फिर किन्तु स्वयं राज्यसत्ता है तथापि जो राजा कोष मे स्वछंद राजतंत्र राज्यों का तो कहना ही क्या? जिनको समृद्ध होने पर भी स्वावलम्बी नहीं होता-प्रत्येक राज्यसत्ता का मद पद पद पर मदान्ध बनाने के लिये कार्य में दूसरों का मुँह ताकना है-वह राजश्रेणी में प्रस्तुत रहता है ।
अपना गौरव नहीं रख सकता । इसी बात को लेकर न बदकोषं स तथा यथाम्बर्ज कवि ने कहा हैविकोषमाक्रामति षट्पदोच्चयः।
स्थितेऽपि कोषे नृपतिः पराश्रयी पराभिभूति-प्रतिबन्धन-क्षम
पपद्यते लाघवमेव केवलम् ॥ २२ ॥ नृपो विदध्यादिति कोषसंग्रहम् ॥ १७॥ कोष होने पर भी परावलम्बी राजा सर्वदा नीचा . 'भ्रमरकुल जैसे विकोष-खिले हुए-कमल पर ही देखता है । अतः राजा को प्रात्म-निर्भर होना उसका रसपान करने के लिये आक्रमण करते हैं वैसे चाहिये। बद्धकोष-मुकुलित अथवा बन्द-कमल पर नहीं इस छोटे से वाक्य से कविन राजाओंके ही लिये करते । इस लिये राजा को दूसरे शत्रों से अपनी नहीं किन्तु पददलित राष्ट्रों के लिये भी बड़ी गढ़ शिक्षा रक्षा करने के लिये कोषका-खजानेका-संग्रह करना की बात कही है। सच है जो राष्ट्र स्वतंत्र होकर भी चाहिये।
आत्म-निर्भरताका पाठ नहीं सीख सका है उसकी स्व___ यहाँ पर कविने कोष शब्दका साम्य लेकर कमल तन्त्रता क्षणिक है; फिर जो दूसरे के बन्धनम जकड़ा का दृष्टान्त देते हुए, राजा लोगों को कोषसंग्रह का हुआ है और स्वतंत्र होने की-अपना अधिकार पन उपदेश किया है। यथार्थ में कोष राजसत्ता का जीवन प्राप्त करनेकी-इच्छारखता है उसका ता स्वावलम्बा है। कोष न रहने से कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं मिलता, जिससे सैन्य विद्रोही होकर शत्रु पक्ष में ।
कोष-विषयमें श्री सोमदेवाचार्य-प्रणीत नीतिवाक्यामृत' के
निन वाक्य भी जानने योग्य हैं :जा मिलती है । और धन संग्रह के लिये अनुचित सीपकोषो हिराला पौरजपनदानन्यायेन प्र. टैक्स लगाने पर राष्ट्र में विप्लव खड़ा हो जाता है। सते ततो राष्ट्रशन्यता स्यात् । इतिहास में भी इस प्रकार के अनेक उदाहरण पाये कोषहीन राजा धन संग्रह करने के लिये प्रजाजन पर अन्याय
पूर्वक अनुचित कर लगाता है जिससे प्रजा में विश्व होता है और *प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ प्राचार्य सोमदेव तो बिना मन्त्री के राजा
देश वीरान हो जाता है। होना ही नहीं मानते। माप लिखते हैं
कोशो राजेत्युच्यते न भूपतीनां शरीरम् । चतुरंगयुतोऽपि नाममात्यो राजाऽस्ति किं पु. कोश को ही राजा कहते हैं, राजामों के शरीरको नहीं।' मरम्पनीका १८५
यस्य हस्ते द्रव्यं स जयति। चतुरंग सैन्य से युक्त होने पर भी बिना मन्त्री के राजा नहीं दो राजामों का परस्पर संग्राम चिकने पर धनवान की ही हो सकता । फिर सैन्यरहित (निर्मल)का तोना ही क्या है विजय होती है।''