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________________ फाल्गुन, वीर नि०सं० २४५६ ] होना ही पड़ेगा । बिना आत्म निर्भरता के केवल दूसरों का मुख जोहने से न तो कोई स्वतंत्र हुआ है और न हो सकता है - भले ही वह राष्ट्र कितना ही धन-जन संपन्न क्यों न हो । ग़रीब देश की तो फिर बात ही अलग है । महाकवि श्रीहरिचन्द्र का राजनीति-वर्णन अनुमित स्नेहभरं विभूतये विधे सिद्धार्थसमूहमाश्रितम् । स पीडितः स्नेहमपास्य तत्क्षणात् खली भवन्केन निवार्यते पुनः ॥ १८ ॥ 'अपने से प्रेम दर्शाने वाले श्राश्रित जनोंकी मनोवाञ्छा पूर्ण करनी चाहिये, इसी में राजा का हित है। क्योंकि यदि उनके साथ अनुचित व्यवहार किया गया और उन्होंने दुःखित होकर प्रेम त्याग दुर्जनता का अवलम्बन लिया तो फिर उन्हें वैसा करने से कौन रोक सकता है ? यहाँ तक तो हुआ राज्यसत्ताको जमाने के उपयुक्त साधनों का वर्णन, अब जग दिग्विजय-सम्बन्धी गजनीति का भी वर्णन देखियेविशुद्धपाणिः प्रकृतीरकोपयन * महाकवि भारवि भी किरातार्जुनीयमें, दुर्योधनकी राज्यव्यवस्था का दिग्दर्शन कराते हुए, राजाके व्यवहारका ऐसा ही भाव दर्शति हैंसखीनिव प्रीतियुजनुजीविनः समान्मानान्युदृद्दश्व बन्धुभिः । स संततं दर्शयते गतस्मयः कृताधिपन्या मिव साधुबन्धुताम् ॥ 'राजा दुर्योधन राजमद को त्याग कर ( पाण्डवों के भयम ) सर्वदा सेक्कों के साथ गाढ प्रेमी मित्रों के सका, मित्रों के साथ महोदर भाई के सा और सहोदर भाईयों के साथ अभिषिक्त राजाओं के सदृश व्यवहार दिखलाता है।' प्रसिद्ध राजनीति प्राचार्य कौटिल्य ने भी राजा को स्वाश्रित जन के साथ प्रेम पूर्ण व्यवहार करने की ही सम्मति दी है 1 जयाय पायादरिमण्डलं नृपः । बहिर्व्यवस्थामिति विभ्रदान्तराजयी कथं स्यादनिरुध्य विद्विषः ||२६|| ततो जयेच्छुर्विजिगीषुरान्तरान्यतेत जेतुं प्रथमं विरोधिनः । hi दानवीर्य वन्हिना गृहानिहान्यत्र कुनी व्यवस्यति ।। २७|| 'जिस राजा को (दूसरे देश पर चढ़ाई करने के बाद स्वदेश पर) समीपवर्ती राष्ट्रोंके आक्रमण करनेका भय न हो तथा जिसका प्रकृतिवर्ग - मंत्री, सेना प्रजा श्रादि - उसके इस कार्यसे असन्तुष्ट न हो वही राजा शत्रुदेशको विजय करने के लिये प्रस्थान करे । क्योंकि वा सेना आदि के होते हुए भी आभ्यंतर शत्रुओं का निग्रह किये बिना जयलाभ कैसे हो सकता है ? श्रतः सबसे प्रथम जय - इच्छुक विजिगीषु X राजा को आभ्यंतर शत्रुओं को जीतने का प्रयत्न करना चाहिये। अपने घरको अग्नि मे धधकता हुआ छोड़ कर कौन बुद्धिमान पुरुष है जो अन्यत्र कार्य करना स्वीकार करेगा ?' X राजत्मदेवद्रव्यप्रकृतिसम्पन्ननयविक्रमयोरधिष्ठानं विजिगीषुः । —नी०वा० पृष्ठ ३१८ अर्थात् श्रात्म – राज्याभिषेक, देव- भाग्य, द्रव्य- कोष, प्रकृति — मंत्री प्रादि राजपुरुष, इन चार पदार्थों से युक्त तथा राजनीति विशारद पराक्रमी राजा को 'विजिगीषु' कहते हैं । * इस विषय प्राचार्य कौटिल्यका कहना है कि 'कोप या विद्रोह दो प्रकारका होता है—एक आभ्यन्तर कोप और दूसरा बाह्य प्राभ्यतर कोप से तात्पर्य मन्त्री, पुंराहित, सेनापति तथा युवराज प्रादिके कोप या विद्रोहसे है। राष्ट्रमुख्य राष्ट्रों के मुखिया, अन्तपाल - सीमारक्षक, भाटविक – जंगल का प्रबन्ध कर्ता, तथा पराजित राजाका विद्रोह बायकोप कहाता है । बायकोप
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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