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________________ २३८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ राजा को त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) का साधन भोगियों के लिये है योगियों के लिये नहीं।' * क्यों और किस प्रकार करना चाहिये इसे भी अब यहाँ पर आशंका होती है कि यदि रोजाओं का सुनिये और देखिये कि एक जैनकवि केवल धर्माव- मुख्य कर्म भोग-विलास ही है और इसी का राजनीति लम्बी राजा को किस प्रकार फटकार बतलाता है- समर्थन करती है तब तो आज कल के देशी नरेश पर मुखं फलं राजपदस्य जन्यते राजनीतिज्ञ हैं और तन-मन-धन से इस राजनीतिका तदत्र कापेन स चार्थसाधनः । पालन करते हैं, फिर क्यों भारतवासी रात दिन विमुच्य तौ चेदिह धर्ममीहसे उनके पीछे पड़े रहते हैं ? इसका उत्तर कवि के ही शब्दों में सुनिये :वृथैव राज्यं वनमेव सेव्यताम् ।। ३ ।। 'राज्यामनका फल सुखोपभोग है, सुखकी उत्पत्ति इहार्थकामाभिनिवेशलालसः काम से-विषय सेवनसे-होती है और कामसेवनके स्वधर्ममर्माणि भिनत्ति यो नृपः। लिये पैसा चाहिये । अतः अर्थ और काम को छोड़कर फलाभिलाषेण समीहते तरूं यदि केवल धर्मसेवन ही करना चाहते हो तो छोड़ो समूलमुन्मूलयितुं स दुर्मतिः ॥ ३२ ॥ इस राजसम्पदा को, बनमें जाकर तपस्या करो। राज्य जो राजा अर्थ और कामकी तीव्र लालसा लिन होकर अपने धर्म के मर्म का छेदन करता है-राजधर्म से माभ्यन्तर कोप भयंकर होता है। यदि राजा को (दूसरे देश पर का भल जाता है । वह गज कुलकलंक दुर्बुद्धि फल कदाई करने के बाद) स्वदेश में प्राभ्यन्तर कोपकी भाशंका हो तो संशयास्पद (जिन पर विश्व काने की प्राशङ्का हो) लोगों को + खानका इच्छास वृक्षका ही जड़स उखाड़ना चाहता है।' काई करते समय अपने साथमें ले लेवे । यदि उसको बाह्यकोप (शत्रु यहाँ पर कवि ने 'लालसा' और मर्म' शब्द देकर का भाक्रमण) की सम्भावना हो तो संशयास्पद लोगों के परिवार कमाल किया है--किसी की तीव्र लालसा ही अन्य अपने पास रखकर और भिन्न भिन्न सेनामों के कर्मों का मुखिया भिन्न मि व्यक्तियों को बना कर तथा स्थान स्थान पर शुन्यपाल को " * इस विषय में सोमदेवाचार्य लिखते हैंनियुक कर कदाई करे या उचित न समझे तो चढ़ाई न करे।" यकामापहत्य धर्ममेवोपास्तेस पकक्षेत्र -कौटलीय अर्थ शास्र * परित्यज्यारण्यं कृषति । महाकवि भारवि भी इसी बात को दर्शाते हुए लिखते हैं - -नी०वा. पृष्ट १४ मा रप्पुपहन्ति विप्रहः प्रभुमन्तःप्रकृतिप्रकोपजः। अर्थात्-जो मनुष्य काम और अर्थ का त्याग कर केवल एक अखिलंहिदिनस्ति भरंगरुशाणानिधर्षजोऽनलः धर्म का ही साधन करता है वह (धान्य प्राप्ति के लिये ) पके हुए -किरा द्वि०स०४२ खेत को छोड़कर भरण्य (जंगल) को जोतता है। अर्थात् अर्थमौर काम पके हुए स्वेत के सनश तुरन्त फलदाई हैं और धर्म अरण्यअर्थात्-जिस प्रकार पक्षों की शाखा की रगढ़ से उत्पन हुई कर्षण-कन जोतनेके-सटश कालान्तर में फलदायी है और उसका माग अपने मात्रय पर्वत कोही जला कर खाक कर मलती हैउसी भी मिलना न मिलना देवाधीन है। इस लिये सुखार्थी पुरुष को अर्थ प्रकार थोडा सा भी माम्यन्तर विश्व राजाको नटकर देता है। काम के साथ धर्म का साधन करना चाहिये।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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