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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ४ राजा को त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) का साधन भोगियों के लिये है योगियों के लिये नहीं।' * क्यों और किस प्रकार करना चाहिये इसे भी अब यहाँ पर आशंका होती है कि यदि रोजाओं का सुनिये और देखिये कि एक जैनकवि केवल धर्माव- मुख्य कर्म भोग-विलास ही है और इसी का राजनीति लम्बी राजा को किस प्रकार फटकार बतलाता है- समर्थन करती है तब तो आज कल के देशी नरेश पर मुखं फलं राजपदस्य जन्यते
राजनीतिज्ञ हैं और तन-मन-धन से इस राजनीतिका तदत्र कापेन स चार्थसाधनः ।
पालन करते हैं, फिर क्यों भारतवासी रात दिन विमुच्य तौ चेदिह धर्ममीहसे
उनके पीछे पड़े रहते हैं ? इसका उत्तर कवि के ही
शब्दों में सुनिये :वृथैव राज्यं वनमेव सेव्यताम् ।। ३ ।। 'राज्यामनका फल सुखोपभोग है, सुखकी उत्पत्ति
इहार्थकामाभिनिवेशलालसः काम से-विषय सेवनसे-होती है और कामसेवनके
स्वधर्ममर्माणि भिनत्ति यो नृपः। लिये पैसा चाहिये । अतः अर्थ और काम को छोड़कर
फलाभिलाषेण समीहते तरूं यदि केवल धर्मसेवन ही करना चाहते हो तो छोड़ो समूलमुन्मूलयितुं स दुर्मतिः ॥ ३२ ॥ इस राजसम्पदा को, बनमें जाकर तपस्या करो। राज्य जो राजा अर्थ और कामकी तीव्र लालसा लिन
होकर अपने धर्म के मर्म का छेदन करता है-राजधर्म से माभ्यन्तर कोप भयंकर होता है। यदि राजा को (दूसरे देश पर का भल जाता है । वह गज कुलकलंक दुर्बुद्धि फल कदाई करने के बाद) स्वदेश में प्राभ्यन्तर कोपकी भाशंका हो तो संशयास्पद (जिन पर विश्व काने की प्राशङ्का हो) लोगों को + खानका इच्छास वृक्षका ही जड़स उखाड़ना चाहता है।' काई करते समय अपने साथमें ले लेवे । यदि उसको बाह्यकोप (शत्रु यहाँ पर कवि ने 'लालसा' और मर्म' शब्द देकर का भाक्रमण) की सम्भावना हो तो संशयास्पद लोगों के परिवार कमाल किया है--किसी की तीव्र लालसा ही अन्य अपने पास रखकर और भिन्न भिन्न सेनामों के कर्मों का मुखिया भिन्न मि व्यक्तियों को बना कर तथा स्थान स्थान पर शुन्यपाल को
" * इस विषय में सोमदेवाचार्य लिखते हैंनियुक कर कदाई करे या उचित न समझे तो चढ़ाई न करे।"
यकामापहत्य धर्ममेवोपास्तेस पकक्षेत्र -कौटलीय अर्थ शास्र
* परित्यज्यारण्यं कृषति । महाकवि भारवि भी इसी बात को दर्शाते हुए लिखते हैं -
-नी०वा. पृष्ट १४ मा रप्पुपहन्ति विप्रहः प्रभुमन्तःप्रकृतिप्रकोपजः। अर्थात्-जो मनुष्य काम और अर्थ का त्याग कर केवल एक अखिलंहिदिनस्ति भरंगरुशाणानिधर्षजोऽनलः धर्म का ही साधन करता है वह (धान्य प्राप्ति के लिये ) पके हुए
-किरा द्वि०स०४२
खेत को छोड़कर भरण्य (जंगल) को जोतता है। अर्थात् अर्थमौर
काम पके हुए स्वेत के सनश तुरन्त फलदाई हैं और धर्म अरण्यअर्थात्-जिस प्रकार पक्षों की शाखा की रगढ़ से उत्पन हुई कर्षण-कन जोतनेके-सटश कालान्तर में फलदायी है और उसका माग अपने मात्रय पर्वत कोही जला कर खाक कर मलती हैउसी भी मिलना न मिलना देवाधीन है। इस लिये सुखार्थी पुरुष को अर्थ प्रकार थोडा सा भी माम्यन्तर विश्व राजाको नटकर देता है। काम के साथ धर्म का साधन करना चाहिये।