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________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरणं १ और केशोंको क्लेशसमान समझते हुए उनका भी लौंच ऋजकूलायास्तीरे शालद्रमसंश्रिते शिला पट्टे। कर डाला । अब आप देहसे भी निर्ममत्व होकर नग्न अपराहे षष्ठेनास्थितस्य खलु जम्भकायापे॥११॥ रहते थे, सिंहकी तरह निर्भय होकर जंगल-पहाड़ों में वैशाखसितदशम्यां हस्तोत्तग्मध्यमाश्रिते चंद्रे । विचरते थे और रात दिन तपश्चरण ही तपश्चरण तपश्रेण्या रूढस्यात्पन्नं केवलज्ञानम् ॥१२॥ किया करते थे। -निर्वाणभक्ति। विशेष सिद्धि और विशेष लोकसेवा के लिये , इस तरह घोर तप रण तथा ध्यानाग्नि द्वारा, विशेष ही तपश्चरणकी जरूरत होती है-तपश्चरण ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ही रोम रोममें रमे हुए आन्तरिक मलको छाँट कर नामके घातिकर्म मलको दग्ध करके, महावीर भगवानने आत्माको शुद्ध, साफ, समर्थ और कार्यक्षम बनाता जब अपने आत्मा में ज्ञान, दर्शन, सुख, और वोर्य नाम है । इसी लिये महावीरको बारह वर्षतक घोर तपश्च के स्वाभाविक गुणोंका चरा विकास अथवा उनका पूर्ण रण करना पड़ा-खूब कड़ा योग साधना पड़ा रूपसे आविर्भाव कर लिया और आप अनुपम शुद्धि, तब कहीं जाकर आपकी शक्तियोंका पूर्ण विकास शक्ति तथा शान्तिकी पराकाष्ठाको पहुंच गये, अथवा हुश्रा । इस दुर्द्धर तप धरणकी कुछ घटनाओंको मालूम यों कहिये कि आपको स्वात्मोपलब्धि रूपी सिद्धि की करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं । परन्तु साथ ही आपके प्राप्ति हो गई, तब आपने सब प्रकारसे समर्थ हो असाधारण धैर्य, अटल निय, सुदृढ आत्मविश्वास कर ब्रह्मपथका नेतृत्व ग्रहण किया और संसारी जीवों अनपम साहस और लोकोत्तर क्षमाशीलताका देखकर को सन्मार्ग का उपदेश देनके लिये उन्हें उनकी भूल हृदय भक्तिसे भर पाता है और खुद बखुद (स्वयमेव) सुझान, बन्धनमुक्त करन, ऊपर उठाने और उनके म्तुति करनेमें प्रवृत्त हो जाता है । अस्तु; मनःपर्ययज्ञानकी दुःख मिटानके लिये अपना विहार प्रारम्भ किया । प्राप्ति तो आपको दीक्षा लेनेके बाद ही हो गई थी परन्तु अथवा यों कहिये कि लोकहित-साधनका जो असाकेवलज्ञान-ज्योतिका उदय बारह वर्षकै उग्र तपश्चरण धारण विचार आपका वर्षों से चल रहा था और जिसका के बाद वैशाख सुदि १० मीको तीसरे पहरके समय गहरा संस्कार जन्मजन्मान्तरोंसे आपकेआत्मामें पड़ा उस वक्त हुश्रा जब कि आप जृम्भका प्रामके निकट हुआ था वह अब संपूर्ण रुकावटोंके दूर हो जाने ऋजुकूला नदीक किनारे, शाल वृक्षके नीचे एक शिला पर स्वतः कार्यमें परिणत हो गया । अस्तु । पर, षष्ठोपवाससे युक्त हुए, क्षपक श्रेणि पर आरूढ थे-आपने शुक्ल ध्यान लगा रक्खा था-और विहार करते हुए श्राप जिस स्थानपर पहुँचते थे चन्द्रमा हम्तोत्तर नक्षत्रके मध्यमें स्थित था । जैसा कि और वहाँ आपके उपदेशकेलिये जो महनीसभा जुड़ती श्रीपूज्यपादाचार्यके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:- थी और जिसे जैनसाहित्यमें 'समवसरण' नाम से उल्लेखित किया गया है उसकी एक खास विशेषता ग्राम-पर-खेट-कर्वट-मटम्ब-घोषाकरान् पविजहा। यह होती थी कि उसका द्वार सबके लिये मुक्त रहता उस्तपोविधान द्वादशवर्षाएयमरपूज्यः ॥१०॥ था, कोई किसीके प्रवेशमें बाधक नहीं होता था
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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