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________________ मार्गशिर, वीरनि० म०२४५६] भगवान महावीर और उमपा राना पशुपक्षी तक भी आकृष्ट होकर वहाँ पहुँच जाते थे, कितनी ही विभूतियोंका-अतिशयोंका-वर्णन किया जाति-पाति छूआछूत और ऊँचनीचका उसमें कोई गया है परन्तु उन्हें यहाँ पर छोड़ा जाता है । क्योंकि भेद नहीं था, सब मनुष्य एक ही मनुष्यजातिमें स्वामी समन्तभद्रने लिखा है:परिगणित होते थे, और उक्त प्रकारके भेदभावको देवागम-नभोयान-चामरादि-विभूतयः । भलाकर आपसमें प्रेमके साथ रल मिलकर बैठने और मायाविष्वपि दृश्यन्ते नानस्त्वममि नो महान॥१॥ धर्मश्रवण करते थे-मानों सब एक ही पिताकी -आप्रमीमांमा । संतान हों । इस आदर्श समवसरणमें भगवान महा- अथात-देवांका आगमन. आकाशमें गमन और वीरकी समता और उदारता मूर्तिमती नज़र आती चामरादिक (दिव्य चमर, छत्र, सिंहासन, भामंडलाथी और वे लोग तो उसमें प्रवेश पाकर बेहद मंतष्ट दिक) विभतियांका अस्तित्व तो मायावियाम-इन्द्रहोते थे जो समाजके अत्याचारोंमे पीड़ित थे, जिन्हें जालियोमें-भी पाया जाता है, इनके कारण हम कभी धर्मश्रवणका, अपने विकामका और उच्च आपको महान नहीं मानते और न इनकी वजहम आप संस्कृतिको प्राप्त करनेका अवसर ही नहीं मिलता था की कोई खास महत्ता या वड़ाई ही है। अथवा जो उसके अधिकारी ही नहीं समझे जात थे । भगवान महावीरकी महत्ता और बड़ाई तो उनके इसके सिवाय, ममवसरणकी भमिमें प्रवेश करते ही माहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तगग भगवान महावीरके मामीप्यमे जीवांका वैग्भाव दर नामक कर्मो का नाश करके परम शान्तिको लिये हाप हो जाता था, क्रूर जन्तु भी मौम्य बन जाते थे और शुद्धि तथा शक्ति की पराकाष्ठाको पहुँचनं और ब्रह्मउनका जाति-विरोध तक मिट जाता था । इमीमे सर्प पका- अहिमान्मक मोनमार्गका-नंतत्व ग्रहण को नकुल या मयर के पास बैठनम कोई भय नहीं होता करने गे है-अथवा यो कहिये कि आत्मोद्धारके माथ था, चहा विना किमी मकोचके विल्लीका आलिंगन माथ लोककी मञ्ची संवा बजानमें है । जैमा कि करता था, गौ और सिंही मिलकर एक ही नादम जन स्वामी ममन्तभद्रक निम्न वाक्यम भी प्रकट है :पीती थीं और मृग-शावक खुशीमे सिंह-शावकर्क माथ वं शुद्धिशक्त्यांहदयग्य काष्टी ग्वेलता था । यह मव महावीरकं योग-बनका माहात्म्य तुलाव्यतीतां जिन शांतिरूपाम | था। उनके श्रात्मामें अहिंमाकी पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी अवापिथ ब्रह्मपथस्य नेना थी, इस लिये उनके संनिकट अथवा उनकी उपस्थिति- ' महानिनीगतं प्रतिवक्त मीशाः ।।५। में किमीका वैर स्थिर नहीं रह सकता था । पतंजलि -युनयनुशासन। ऋपिन भी, अपने योगदर्शनमें, योगके इम माहात्म्यको महावीर भगवानन लगातार नीम वर्पनक अनेक स्वीकार किया है; जैसा कि उसके निम्न मृत्र में देश-देशान्तरोंमें विहार करके मन्मार्गका उपदेश दिया, प्रकट है: १ ज्ञानावग्णा-दर्शनावरगांक प्रभावले निर्भल ज्ञान दर्शन अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैग्त्यागः ।३५।। प्रावितिका नाम 'शुद्धि' और अन्नगय कक नाशमे वीर्थलब्धि जैनशास्त्रों में महावीरके विहार-समयादिक की का होना 'शक्ति' है। - --
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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