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________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] भगवान महावीर और उनका समय पाया जाता है । इस प्रकार वंशके ऊपर नामों का उस उसे खूब ही घुमाया, फिराया तथा निर्मद कर दिया। समय चलन था--बुद्धदेव भी अपने वंश पर से 'शाक्य- उसी वक्तसे आप लोकमें 'महावीर' नाममं प्रसिद्ध पुत्र' कहे जाते थे। अस्तु; इस 'नात' का ही बिगड़ हुए । इन दोनों * घटनाओंसे यह स्पष्ट जाना जाता कर अथवा लेखकों या पाठकोंकी नासमझी की वजह है कि महावीरमें बाल्यकालसे ही बुद्धि और शक्ति का से बादको 'नाथ' रूप हुआ जान पड़ता है । और असाधारण विकाश हो रहा था और इस प्रकार की इसीसे कुछ अन्योंमें महावीर को नाथवंशी लिखा हुआ घटनाएँ उनके भावी अमाधारण व्यक्तित्वको मचिन मिलता है, जो ठीक नहीं है। करती थीं । मी ठीक ही है___महावीरके बाल्यकालकी घटनाओं में से दो घट- “हान हार बिरवानक होत चीकनपात" । नाएँ खास तौर से उल्लेख योग्य हैं-एक यह कि, तीम वर्षकी अवस्था हो जाने पर महावीर मंसारसंजय और विजय नामके दो चारण मुनियोंको देह-भोगोंस पूर्णतया विरक्त हो गये, उन्हें अपने तत्वार्थ-विषयक कोई भारी संदेह उत्पन्न हो गया आत्मोत्कर्षको माधने और अपना अन्तिम ध्येय प्राप्त था, जन्मके कुछ दिन बाद ही जब उन्होंने आपको करनेकी ही नहीं किन्तु मंसारक जीवांकी सन्मार्गमे देखा तो आपके दर्शनमात्र से उनका वह सब संदह लगानं अथवा उनकी सची मेवा बजानकी एक विशंप तत्काल दूर हो गया और इस लिये उन्होंने बड़ी भक्ति- लगन लगी-दीन दुखियोंकी पुकार उनकं हृदयम से आपका नाम 'सन्मति' रक्खा है। दूसरी यह कि, घर कर गई-और इमलियं उन्होंन, अब भार अधिएक दिन आप बहुतसे राजकुमारोंके साथ बनमें वृक्ष- क समय तक गृहवामको उचित न ममझ कर जंगल क्रीड़ा कर रहे थे, इतने में वहाँ पर एक महाभयंकर का गम्ना लिया. संपूर्ण गज्य वैभवका टकरा दिया और विशालकाय मर्प आ निकला और उस वृक्षका और इन्द्रिय-मुग्राम मुग्व माड़कर मंगमिग्वदिमी ही मूलसे लेकर स्कंध पर्यन्त बढकर स्थित हो गया का ज्ञात खंड नामक वनमें जिनदीक्षा धारण कर. जिसपर आप चढ़े हुए थे। उसके विकराल रूपका ली। दीक्षाकं ममय आपन मंपूर्ण परिग्रहका त्याग देखक: दूसरे राजकुमार भयवित न हो गये और उसी करके आकिंचन्य (अपरिग्रह) वन ग्रहण किया. अपने दशामें वृक्षों परसे गिर कर अथवा का कर अपने अपने शरीर परमं वस्त्राभषणों को उतार कर फेंक दिया x घरका भाग गये । परन्तु आपकं हृदयमं जरा भी इनमें में पहली घटना का उल्लव प्रायः दिगम्बर ग्रन्थों में भयका संचार नहीं हुआ-आप बिलकुल निर्भयचित्त और दमा का दिगम्बर तथा ताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय क ग्रन्थी होकर उस काले नागसे ही क्रीड़ा करने लगे और में वलना में पाया जाता है। आपने उस पर सवार होकर अपन बल तथा पराक्रमसं कुछ श्वेताम्बराय ग्रन्थों में इतना विशप कथन पाया Giri * संजयस्यार्थ दिह सनात वि..या य च । है और वह मभवत माम्प्रदायिक जान पड़ता है कि. वयाभषगां को जन्मान्तरमै नमभ्येत्या लोकसातत्रतः।। उतार डालने के बाद इन्द्र ने देवदव्य' नामका एक वह मूल्य वा तत्संदगते ताभ्यां चरण,भ्यां रवभक्तितः । भगवान के कन्ध पर दाल दिया था, जो १३ महीने तक पड़ा रहा । अस्त्वेष सन्मति वो भावीति समुदाहृतः ।।। बाद को महावीर ने उसे भी त्याग दिया और पूर्ण रूप में नाम-~-महापुराण, पर्व ७४ वां । दिगम्बर अथवा जिनकल्पी ही रहे ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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