SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 486
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राषाढ श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६ ] पाप का बाप अपने हाथसे भोजन बना कर आपको खिलाऊँ, और इस प्रकार से अपने मनुष्यजन्मको सफल करूँ । क्या आप मुझ अभागिनकी इस तुच्छ बिनतीको स्वीकार करने की कृपा दरशावेंगे? आपकी इस कृपाके उपलक्ष में यह दासी ५००) रु० और भी आपकी भेट करना चाहती है” यह कहकर तुरन्त पाँच सौ रुपये की थैली मँगा कर पंडितजीके आगे रखदी । वेश्या इन कोमल वचनों को सुन कर यद्यपि पंडित जो कुछ पसा भी आया, कुछ हिचकचाट-सा भी पैदा हुआ और वेश्या की इस टंढी प्रार्थना के स्वीकार करने में उनका अपना धर्म भ्रष्ट होता हुआ भी नजर आया; परन्तु ५००)रुपयेकी थैलीका देखकर उनके मुँह में पानी भर आया, वे विचारने लगे कि - " मुझको यहाँ पर कोई देखने वाला तो है नहीं, जो जातिसे पतित होनका भय कियाजावं, पाँच सौ रुपये की अच्छी रक़म हाथ आती है इससे बहुतसे काम सिद्ध होंगे और जो कुछ थोड़ा बहुत पाप लगेगा तो वह हरिद्वार में आकर गंगाजीमे एक गोता लगाने से दूर हो सकता है; इस लिये हाथमें आई हुई इस क्रमको कदापि नहीं छोड़ना चाहिये" । इस प्रकार निश्चयकर पंडितजी वेश्या कहने लगे कि - " मुझको तुमसे कुछ उज़र तो नहीं है परंतु तुम तो व्यर्थ ही अंगुली पकड़ने पहुँचा पकड़ती हो । स्वैर ! जैमी तुम्हारी मर्जी (इच्छा ।" पंडितजीके इस प्रकार राजी होने पर वेश्या ५०० ) ० की थैली पंडितजी के सुपुर्द कर स्वयं रसोई बनाने लगी और पंडितजी भोजनकी प्रतीक्षामें बैठ गये । पंडितजी बैठे बैठे अपने मनमें यह खयाल करके बहुत खुश हो रहे हैं कि, "यह वेश्या तो अच्छी मनिकी fift और गाँउकी पूरी मिल गई, ऐसी तो जम जम होती रहे । थोड़ी देर में रसोई तय्यार हो गई और ५०७ पंडितजी भोजन के लिये बुलाये गये । जब पंडित जी रसोई में पहुँचे और उनके आगे अनेक प्रकारके भांजनोंका थाल परोसा गया, तब वेश्याने पंडित जीसे निवेदन किया कि "जहाँ आपने मेरी इतनी इच्छा पूर्ण की है वहाँ पर इतनी और कीजिये कि एक प्र.स मेरे हाथ से अपने मुख में ले लीजिये, और फिर बाक़ी सब भोजन अपने आप कर लीजिये । मैं इतने ही से कृतार्थ हो जाऊँगी; और यह लो ! पाँच सौ रुपये की और थैली आपकी नजर हैं।" बस, वेश्याके इन वचनोको सुनते ही पंडित जीके घर गंगा आ गई और थैलीका नाम सुनते ही वे फूलकर कुप्पा हो गये। आपने सोच लिया कि, जब वेश्यानं अपने हाथ से कुल भोजन ही तय्यार किया है तो फिर उसके हाथ से एक ग्राम अपने मुखमें ले लेनेमें ही कोन हर्ज है ? यह तो सहज ही में एक की दो थैलि - याँ बनती है; दूसरे जब गंगाजी में गोता लगावेंगे तब थोड़ामा गंगाजल भी पान कालवंगे, जिससे सब शुद्धि हो जावेगी । इस लिये पंडितजीने वेश्याकी यह बात भी स्वीकार करली | जब वेश्याने पंडित जीके मुँह में देनेके लिये प्राम उठाया और पंडित जीने उसके लेनेके लिये मुँह बाया (खोला) तव वेश्याने क्रोधमें आकर बड़े चोरके साथ पंडितजी के मुख पर एक थप्पड़ मारा और कहा कि"पापका बाप पढ़ा या नहीं ? यही (लोभ) पापका बाप है जिसके कारण तुम अपना मारा पढ़ा-लिखा भुलाकर अपने धर्म-कर्म और समस्त कुल-मर्यादा को नर करने के लिये उतारू हो गये हो ।" थप्पड़ के लगते ही पंडित जीको होश आ गया और जिस विद्या के पढ़ने के लिये वे घरमे निकले थे वह उन्हें प्राप्त हो गई। आपको पूरी तो यह निश्चय हो गया कि, लोभ
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy