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________________ अनेकान्त ५०६ पड़ी कि, जब अपने नगरसे निकल कर दो-चार प्रामोंमें पूछने पर भी आपको कोई पापका बाप नहीं बता सका तो आप पागल-से हुए गली गली यह कहते फिरने लगे कि, (C कोई पापका बाप पढ़ा दो ! कोई पापका बाप बता दो ! ” इस प्रकार कहते और घूमते हुए पंडितजी एक बड़े नगर में पहुँचे, जहाँ पर एक बड़ी चतुर वेश्या रहती थी । जिस समय पंडितजी अपनी बी ( " कोई पापका बाप पढ़ा दी - " ) बो लत हुए उस वेश्याके मकान के नीचेका गुजरे तो वह वेश्या उनके हालको ताड़ गई- अर्थात् समझ गई, और उसने तुरन्त ही अपने एक आदमीके हाथ उनको ऊपर बुलवा लिया | जब पंडितजी ऊपर वंश्याके मकान पर पहुँचे तो वेश्याने उनको बहुत आदर-सत्कार से बिठाया और बैठने के लिये उच्वासन दिया। पंडितजीके बैठ जाने पर वेश्याने उनका सब हाल पूछा और उनकी हालत पर सहानुभूति और हमदर्दी प्रकट की। फिर वह वे श्या पंडितजीको इधर-उधर की बातों में भुलाकर उनकी बहुत प्रशंसा करने लगी और कहने लगी कि," मुझ मंद भागिनी के ऐसे भाग्य कहाँ जो आप जैसे विद्वान, सज्जन और धर्मात्मा अतिथि मेरे घर पधारें, मेरा घर आपके चरणकमलांम पवित्र हो गया; मेरी इच्छा है कि आज आप यहीं पर भोजन कर इस दामीका जन्म सफल करें, आशा है कि आप मेरी इस प्रार्थना को अस्वीकार न करेंगे ।" वेश्याकी इस प्रार्थनाको सुन कर पंडितजी कुछ चौक कर कहने लगे कि, हैं! यह क्या कही ! हम ब्राह्मण तुम्हारे घरका भोजन कैसे कर सकते हैं? इस पर वेश्याने नम्रता से कहा कि "महाराजका जो कुछ विचार है वह ठीक है परन्तु मैं बाजार से हिन्दू के हाथ भोजनकी सब सामग्री मँगाये [वर्ष १, किरण ८, ९, १० देती हूँ, आप स्वयं यहीं पर रसोई तय्यार कर लेवें, इसमें कोई हर्ज नहीं है और यह लो ! ( मौ रुपये की ढेरी लगा कर ) अपनी दक्षिणा । ' " पंडितजीने ज्यूँही नकद नारायण के दर्शन किये कि उनकी आँम्बे खुल गई और वे सोचने लगे कि, वेश्याके यहाँ से सुखा अन्नादिकका भोजन लेने वा बाजारसे इसके द्वारा मंगाई हुई सामग्रीमे भोजन बना कर खाने में तो कोई दोष नहीं है, और दूसरे यह दक्षिणा भी माकूल देती है; इसलिये इसकी प्रार्थना - रूर स्वीकार करनी चाहिये। ऐसा विचार कर आपने उत्तर दिया कि, खैर ! यदि बाजार से सब मामी शुद्ध आजावे और घी भी हिन्दू के यहाँ का मिल जा तो कुछ हरज नहीं, हम यहीं पर स्वयं बनाकर भोजन कर लेवेंगे।" वंश्याने पंडितजी की इस स्वीकारता पर बहुत बड़ी ख़ुशी जाहिर की और उनको यकीन दिलाया कि सब सामग्री बहुत शुद्धता के साथ मँगाई जावेगी और घी भी हिन्दू ही के यहाँ का होगा और उसी वक्त अपने नौकरीको सब सामग्री लाकर हाजिर करनेकी आज्ञा करदी | जब सब सामग्री आ चुकी, चौंका बरतन भी हो चुका और पंडितजी स्नान करके रसोई में जाने होकी थे, तब वेश्याने बड़ी ही नम्रता और विनय के साथ पंडि नजीसे यह अर्जकी कि- "महाराज ! आज मेरी चित्त आपके गुणों पर बहुत ही मोहित हो रहा है और आप की भक्ति से इतना भीग रहा है कि उसमें अनेक प्रकार से आपकी सेवा करनेकी तरंगें उठ रही हैं; नहीं मालूम पूर्वले जन्मका ही यह कोई संस्कार है या क्या इस समय मेरा हृदय इस बात के लिये उमँड रहा है और यही मेरी मनोकामना है कि आज मैं स्वयं ही ,
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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