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________________ ५९२ भनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ विद्वानों ने जैनदर्शन पर जो हमले किये हैं उनका उत्तर बिम्ब इन दो ग्रंथों में है। प्रस्तुत दोनों वार्तिक जैनदर्शदेना बहुत कुछ बाकी है; और खास कर मीमांसक का प्रामाणिक अभ्यास करने के लिये हरेकको साधन कुमारिल आदि द्वारा किये गये जैनदर्शनके खंडनका की पूर्ति करते हैं। परन्तु इनमेंस 'राजवार्तिक' गद्य, उत्तर दिये बिना उनसे किसी तरह भी रहा नहीं जा सरल और विस्तृत होनसे तत्वार्थके संपूर्ण टीकाग्रंथों सकता तभी उन्होंने श्लोकवात्तिककी रचना की । हम की गरज अकेला ही पूरी करता है । ये दो वात्तिक देखते हैं कि इन्होंने अपना यह उद्देश्य सिद्ध किया है। यदि नहीं होते तो दसवीं शताब्दीसे पहलेक दिगम्बरीय तत्त्वार्थश्लोकवाति कमें जितना और जैसा सबल मी- साहित्यमें जो विशिष्टता आई है और इसकी जो मांसक दर्शनका खंडन है वैसा तत्त्वार्थसूत्रकी दूसरी प्रतिष्ठा बँधी है वह निश्चयसे अधरी ही रहती । ये किसी भी टीकामें नहीं । तत्वार्थश्लोकवार्तिकमें सर्वा- दो वार्तिक साम्प्रदायिक होने पर भी अनेक दृष्टियोंसे र्थसिद्धि तथा राजवात्तिकमें चर्चित हुए काई भी मुख्य भारतीय दार्शनिक साहित्यमें विशिष्ट स्थान प्राप्त करें विषय छूटे नहीं; उलटा बहुतसं स्थानों पर तो सर्वार्थ- ऐसी योग्यता रखते हैं । इनका अवलोकन बौद्ध और सिद्धि और राजवार्तिकी अपेक्षा श्लोकवार्तिककी वैदिकपरंपराके अनेक विषयों पर नथा अनेक प्रन्थों चर्चा बढ़ जाती है । कितनी ही बातोंकी चर्चा तो लो- पर ऐतिहासिक प्रकाश डालता है । कवार्तिकमें बिलकुल अपूर्व ही है। राजवार्तिकमें दाश दो वृत्तियाँ निक अभ्यासकी विशालता है तो श्लाकवातिकमें इस मूल सत्र पर रची गई व्याख्याओंका संक्षिा परिविशालताक साथ सुक्ष्मताका तत्त्व भरा हुआ दृष्टि- चय प्राप्त करनेके बाद अब व्याख्या पर रची हुई गोचर होता है । समग्र जैन वाङमयमें जो थोड़ी बहुत व्याख्यानोका परिचय प्राप्त करनेका अवलर पाता है। कृतियाँ महत्व रखती हैं उनमें की दो कृतियाँ 'राज- ऐसी दा व्याख्याएँ इस समय पूरी पूरी उपलब्ध हैं, बार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' भी हैं । तत्वार्थसत्र जो दोनों ही श्वेताम्बरीय हैं । इन दोनोंका मुख्य साम्य पर उपलब्ध ताम्बरीय साहित्य से एक भी संक्षेपमें इतना ही है कि ये दोनों व्याख्याएँ उमास्वाति के स्वीपज्ञ भाष्यको शब्दशः स्पर्श करती हैं और उस ग्रंथ राजवार्तिक या श्लोकवार्तिककी तुलना का विवरण करती हैं । भाष्यका विवरण करतं भाष्य कर सके ऐसा दिखलाई नहीं देता । भाष्य में का आश्रय लेकर सर्वत्र आगमिक वस्तुका ही प्रतिदृष्ट पड़ता अच्छा दार्शनिक अभ्यास सर्वार्थसिद्धि में पादन करना और जहाँ भाष्य आगमसे विरुद्ध जाता कुछ गहरा बन जाता है और राजवातिकमें वह विशेष दिखाई देता हो वहाँ भी अन्तको आगमिक परम्परा गाढ़ा हो कर अंतको श्लोकवार्तिकमें खूब जम जाता का ही समर्थन करना, यह इन दोनों वृत्तियोंका समान है। राजवार्तिक और श्लोकवार्तिकके इतिहास - ध्येय है। इतना साम्य होते हुए भी इन दो वृत्तियों में भ्यासीको ऐसा मालूम ही पड़ेगा कि दक्षिण हिन्दुस्ता- परस्पर भेद भी है । एक वृत्ति जो प्रमाणमें बड़ी है नमें जो दार्शनिक विद्या और स्पर्धाका समय आया वह एक ही प्राचार्यकी कृति है, जब कि दूमरी छोटी और भनेकमुखी पांडित्य विकसित हुआ उसीका प्रति- वृत्ति दो प्राचार्योकी मिन कृति है। लगभग बाईस
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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