SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 574
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आश्विन,कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] तत्त्वार्थस्त्रके व्याख्याकार और व्याख्याएँ ५९३ हजार * श्लोक प्रमाण बड़ी वृत्तिमें अध्यायोंके अंतमें पर से होने वाली दूसरी वाम मचना उद्धार-विषयकी तो बहुत करके 'भाष्यानमारिणी' इतना ही उल्लेख है। छोटी वत्ति किसी दूसरी वृत्तिमेसे मंक्षिप्त करके मिलना है; जब कि ११ हजार श्लोक प्रमाण छोटी उद्धत की गई है । यही अर्थ उद्धारकी मचनामेंमे वृत्तिमें प्रारम्भ के कितने ही अध्यायोंके अंतमें तो "हरि- फलित होना है। जिस वृत्निसे प्रस्तुत छोटी वन्ति उद्धृत भद्रोदधृतायां दुपदुपिकाभिधानायो" ऐमा उल्लेग्य की गई होगी वह वृत्ति उद्धत वृति की अपेक्षा प्रमाण और पिछले कितने ही अध्यायोंके अन्तमें "हरिभ- में बड़ी होगी यह ना स्वाभाविक ही है । प्रस्तुत को द्राचायप्रारब्धायां दुपपिकाभिभधानायां तस्या- वृत्तियों में की सिद्धमनीय बड़ी वृत्तिसं भिन्न दृसरी किमी मेवान्यकत कायां' ऐमा उल्लेख मिलता है। ये उल्लाव बड़ी वृत्ति के होनेका सबत जब तक न मिले तब तक ऐमा सूचित करते हैं कि बड़ी वृत्तिका कोई खास नाम तो ऐसा ही मानना उचित है कि मिद्धसनीय बड़ी नहीं जब कि छोटीवृतिका 'दपदापिका' ऐसा नाम वृत्तिमेसे ही हरिभद्रीय छोटी वृत्तिका उद्धार हुआ है। है । दुपपिका ऐमा अभी तक बाँचनमें आना हुश्रा इस मान्यताकी पुष्टि में दानों वृत्तियों के शब्दसादृश्यको पाठ यदि मत्य हो तो उसका अर्थ क्या विविक्षिन होगा प्रमाणके नौर पर रख सकते हैं । छोटी वृत्तिमें बड़ीवत्ति वह कुछ भी समझमें नहीं आता, फिर भी इन उल्लेखों का ही शब्दशः प्रतिबिम्ब है । बड़ी वृत्तिमें जा सूत्रपाठ विषयक और मन्नव्या-विषयक अनेक मतभेद नोट : पहन इसी उनिकी नया अठारह हजार बतलाई गई। ___ किये गये हैं, जो लम्बे लम्बे प्रतिपादन हैं, भाष्यके तब दानों में किराको ठीक मनझा जाय । यह एक प्रश्नाना है। -सम्पादक समथनम अथवा उसके विगंध जो लम्बी लम्बी २४ हमारे पास जा प्रवक कन्तिविजोक शामा ग्रह, चचाप है, दार्शनिक मन्तव्यांकी जो विस्तारपर्वक को लिग्बी ई पुस्तक है. मा मिनत्र ! अध्यायक माना समालोचना नथा ग्वंडन-मंडन है और जो दूसरं प्रास का सा नाम पर है दूसरे अन्यायांक अन्तमें जहां गिक ऊहापोह है व सब छोटी वृत्तिम नहीं थथवा है यह नाज है वहीं चार अक्षर छाद कर 'काभिधानायां इतनी का चार असरका कामियानाया भी ना बिलकलाहीमक्षिाकर ही लिखा है । एमा मालता है कि प्राचीन लिला ई पुग्नको में चार अनर नती वचनम लेखकन इतनी जगह काही हामी । नियोंको अवलोकन करते हुगएमा मालूम होता है सा खगिडन नाम न पर भी नवा अध्यायक अन्तर दुपदुप' किस न कि संपाच-श्रभ्यामियोंकी सरलनाके लिए बडी की इन चार मन की प्रतिक माथ 'दुपदुपिकाभिधानायां' जटिलता घटा कर ही छोटी वृति बनाई गई है । सा पाठ पत्र लिखा है । इसमें उसकी मौलिकता विषय ने मा केमिवाय छाटी वनिक रचयिताका कोई खाम की. होती है। शल मन पर अङ्कित नहीं होना । छोटी वृत्ति में जो जी यदि 'पदविका कद देशीय प्राकृत या मरकृतका गत्यही बात हैं व मय बड़ी वृत्तिमें नो हैं ही; इम परमं यहाँ की और उसका अर्थ एक कोटी नौका माता जमा कर सकते हैं कि यह छाटी नि बड़ी प्रतिस्प समुद्रमं प्रवेश कानक लिंग ऐसा कहा जाता है कि छोटी वृत्ति प्रस्तुन बड़ी वनिका टोगीकी गरज़ मिद्धि कानेक लिय लग गई है। उद्धार है । इम कथाम यह स्वाभाविक तौर पर ही मिनीय सृव परकी कुमाग्लिकृत प्रतिक अन्तिम भागकः फलित होता है कि छोटी और बड़ी प्रस्तुन दोनों पतिएमा नान है । इसमे भी टुप गट अपार्थक जान पता है। योंमें स्वीकृत मूल भाष्यपाठ एक ही है और होना
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy