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________________ भाषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६ ] अपने ग्रन्थ की श्रादिमें लिखते हैं:कायोत्सर्गायांगो जयतिजिन पतिर्नाभिसनुर्महात्मा, मध्यान्हे यस्य भास्वापरिपरिगतो गजते स्मग्रमूर्तिः । चक्रं कर्मेन्धना मनिहतो दूरमौदास्यवात - स्फुत्सदृध्यान बन्हे विरुचिरतरः मोद्गतो विस्फुलिंगः ॥ १ ॥ योगमार्ग ५३७ कि स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्योंसे भी प्रकट है - स्वदोषमूलं स्वसमाधितेजसा, निनाय यो निर्दयभस्मसात् क्रियाम् । जगाद तत्वं जगतेऽर्थिनेऽञ्जसा, बभूव च ब्रह्मपदामृतेश्वरः ॥ ४ ॥ विश्वचवृषभोऽर्चितः सतां, समग्रविद्यात्मपपुर्निरंजनः । पुनातु चेो मम नाभिनन्दनो, जिनोऽजित क्षुल्लकवा दिशासनः || ५ || -स्वयम्भू स्तोत्र | श्री आदिनाथ भगवान्ने युगकी आदिमें जिस योगविद्याका आविष्कार और प्रकाश किया था उसका उपदेश सभीनं उस समय अपने अपने मतिविभवानुरूप ग्रहण किया था और वह उपदेश फिर उनके वंशजोंको उत्तराधिकार में मिलता रहा । इस तरह योगकी परिपाटी चली और उसका उपदेश अनेक वंशपरम्परा में श्राश्रयभेदसे कुछ विकृतावि कृत अवस्थाको धारण किये हुए सुरक्षित रहा । बाद को जब अनेक मत-मतान्तर तथा सम्प्रदायभेद खड़े हुए तब भी योग आदिगुरु आदियोगाचार्य के रूपश्रीश्रदिनाथ ही माने जाते रहे हैं और आज भी वे माने जाते हैं। यही वजह है जो योग-विषयक जैन ग्रंथों में भी आदिनाथ की स्तुति पाई जाती है, उन्हें आदियोगीश्वर माना जाता है और योग के कितने ही विषयोंका उनके नाम के साथ स्पष्ट उल्लेख तक किया जाता है। प्रसिद्ध योगशास्त्र 'हठयोगप्रदीपिका' में सबसे पहले मंगलाचरण के तौर पर आदिनाथ की स्तुति की गई है जो इस प्रकार है: श्रीश्रदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोगविद्या । - पद्मनंन्दिपंचविंशतिका । अर्थात् कायांत्सर्गरूपसे योगारूढ वे श्रीनाभिराजा के पुत्र महात्मा आदिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त हों, जिनके ऊपर मध्यान्ह के समय ग्रीष्मकालका अत्यंत मायमान प्रचण्ड सर्य ऐसी शोभाको धारण करता था मानो वह कोई सूर्य नहीं किन्तु वैराग्यरूपी पवनसे दहकती हुई और कर्मेन्धन समूहकी भम्मसात् करती हुई भगवान् की शुक्लध्यान रूपी योगाग्निसे निकला हुआ एक देदीप्यमान स्फुलिंगा है, जो कि उड़ कर आकाश में गया है । इसी योगाग्नि से श्री आदिनाथने अपने राग, द्वेष, और अज्ञानादि दोषोंके मूल कारण घातिकर्मचतुथ्र्यको भस्मीभूत किया था और आप पुर्णज्ञानी, विश्वचक्षु, सत्पुरुषोंसे पूजित तथा निरंजन होते हुए परम ब्रह्मपदको प्राप्त हुए थे। साथ ही, आपने जग aist यथार्थ तत्वों का उपदेश दिया था - उन्हें जीवादिकों की स्थितिका, उनकी विकृति अविकृतिका और योगादिविद्याओं का सारा रहस्य समझाया था; जैसा 'ऋषभः स्यादादिजिने' | 'वृषभः स्यादादिजिने' | - इति हेमचंद्रः ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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