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________________ ५३८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, .. विभ्राजते प्रोन्ननराज योग- हुई है और उसका प्रवाह एक ओर अन्यान्य जैन मारोदमिच्छोरधिरोहिणीव ॥ १॥ तीर्थंकरोंका समाश्रय प्राप्त करताहुआ प्रधानतःजैनियांअर्थात्-श्री आदिनाथको नमस्कार हा, जिन्होंने की ओर बहा है तो दूसरी ओर हिन्दू ऋषियो नथा उस हठयोग विद्याका सर्व प्रथम उपदेश दिया जो कि बौद्धादि भिक्षुओंका आश्रय लेता हुआ वह अजैन बहुत ऊँचे राजयोग पर आरोहण करने के लिये नसैनी जनतामें प्रसारको प्राप्त हुआ है और इस तरह उम (सीढी) के समान है। ___एक योगधारा की उत्तरोत्तर कितनी ही शाखा-प्रनिइस योगशास्त्रमें बहुतसं सिद्ध यागियोंक नाम देते शाखाएँ होती चली गई हैं। नदीजल की तरह योगहुए जिनमें एक नाम पज्यपादका भी है। 'श्रीआदि- की इन शाखा-प्रनिशाखाओंमें आश्रयादि भेदम बुद्ध नाथ' यह नाम सबसे पहले दिया है (श्लो. ५) और कुछ विभिन्नता होते हुए भी मुख्य योगजल प्राय एक विषयका वर्णन करतं हुए एक जगह 'मुद्रादशक' को ही प्रकार का-रहा है। इसीसे हिन्दुओके वही, आदिनाथ द्वारा उपदशित बतलाया है और दूसरी ब्राह्मणग्रन्थों तथा उपनिषदोंमें और बौद्धके ग्रन्थोंजगह लिखा है कि आदिनाथन लययांगके सवा करोड में भी योग-विषयक जो कथन पाया जाता है वह बहन भेद वर्णन किये हैं जिनमें से हम नादानसन्धानको कुछ उस कथनके साथ मिलता जलता है जो कि जैन ही मुख्यतम मानते हैं । यथाः ग्रंथों में उपलब्ध होता है। आदिनाथादितं दिव्यमष्टैश्वर्य प्रदायकम् ।। ___ योगका सबसे प्रधान ग्रन्थ पातंजलि ऋपिका वन्लभं सर्वसिद्धानां दुर्लभं मरुतामपि .. ३.. 'योगदर्शन' समना जाना है। यह दर्शन जैनदर्शन श्रीआदिनाथन सपादकांटि अथवा जैनधर्मके माथ जितनी अधिक समानता रखता लय प्रकागः कथिता जयन्ति । है उतनी दूसरा कोई भी और दर्शन नहीं रखता । इस नादानसंधानकमे कपेव ममाननाके कारण पढ़ने वाला कभी कभी योगदर्शन को एक जैनप्रन्थ मम कने लगता है। दोनों दर्शनोंमें मन्यामहे मुख्यतमं लयानाम् । ४-६६ कितने ही विषयों तथा प्रक्रियाकी समानताके अतिरिक्त इस प्रकार अन्यत्र भी श्रादिनाथका कीर्तन और शब्दोका बहुत कुछ मादृश्य पाया जाता है । मूल योग उनके योगका उल्लेग्व पाया जाता है और इसमें यह सूत्रमें ही नहीं किन्तु उमके भाष्य तकमें ऐसे अनेक प्रतीत होता है कि योगविद्याका मूल स्रोत एक है। शब्द मिलते हैं जो अन्य दर्शनोंमें प्रचलित नहीं, या यह योग-गंगा आदिनाथरूपी हिमाचलसे प्रवाहित बहुत ही कम प्रचलित हैं, परंतु जेन ग्रन्थोंके लिये वे * दिगम्बर जैन समाजमें पूज्यपाद नागके एक बन बड़े योगी बहन ही साधारण हैं और उनमें खास तौरसे प्रसिद्ध का है, श्रवगाबेल्गालके शिलालेखों आदिमें मापका उल्लेख है। है। जैसे भवप्रत्यय, सवितर्क सविचार निर्विचार, एक शिलालेख (नं० १०८) में आपको औषध ऋद्धिका धारक लिखा है, और यह भी प्रकट किया है कि आपके पादप्रक्षालित महाव्रत, कृत-कारित-अनुमोदित, प्रकाशावरण, सोपजलसे लोहा भी सोना हो जाता था । मभव है यह ना यो ख उन्हीं क्रम निरुपक्रम, वसंहनन, केवली, कुशल, ज्ञानावपूज्यपादका । रणीय कर्म, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सर्वज्ञ,क्षीणक्लश,
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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