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________________ श्राषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] योगमार्ग ५३९ चरम देह, इत्यादि। दोनों दर्शनोंकी इस समानताका वर्षाभ्योऽन्यत्र वर्षाप माश्चि चतुगेवसेन।। -१४ विशेष परिचय पाने के लिये विद्वद्वर पं० सुखलालजी- द्विरात्रं न वसेद् ग्रामे भिक्षुर्यदि वसेत्तदा । द्वारा संपादित 'योगदर्शन तथा योगविंशिका' और रागादयः प्रसज्येरंस्तेनासौ नारकी भवेत् ।। १५ उनकी 'तत्त्वार्थसूत्र-टीका' देखने योग्य है * । इस ग्रामान्ते निर्जने देशे नियतात्माऽनिकेतनः । समानताके कारण ही जैनाचार्योंने टीका आदिके द्वारा पर्यटेत सदा योगी वोक्षयन्वसुधातलं ।। १६ ।। योगदर्शनके प्रति अपना आदरभाव प्रकट किया है न रात्री न च मध्यान्हे मध्ययो व पर्यटन् । और हरिभद्र जैस प्रकाण्ड पंडित आचार्योंने तो योग परमहंसाश्रमस्थो हि स्नानादेर विधानतः ।। दर्शनके वाक्योंको उद्धृत करते हुए पतंजलि ऋषिका अशेषचित्तवत्तीनां त्यागं वलमाचरेत् ॥ १.५ । म्मरण निर्धतकल्मष, अध्यात्मविद् और पहागनि अभयं सर्वभतेभ्यो दत्वा चरति यो मुनिः । जैसे बहुमान-सूचक शब्दोंद्वारा किया है; क्योंकि वे न तम्य सर्वभतेभ्यों भयमुत्पद्यते कचित् ।।५-१६ पतंजलि ऋषिका, उनकी दृष्टिविशालता और प्रायः पाणिपात्रश्चन्योगी नामकृ तमाचरेत् ॥" । सर्व दर्शनोंका समन्वय योगमें करते हुए योगविद्या नारदपरिव्राजकोपनिषद् । का एक अच्छा संगह प्रस्तुत करनेके कारण, एक “ तदेतद्विज्ञाय ब्राह्मण: पात्रं कमण्डलुं विशिष्ट योगानुभवी तथा आत्मानुभवी विद्वान समझत कटिस कोपीनं च तत्मर्वमस विमज्याथ जातथे और उनमें जैनत्वका बहुत कुछ विकास मानते थे। रूपधरश्चरेदात्मानमन्विच्छेद्यथाजातरूपधरो ___ अजैन शास्त्रों में जहाँ कहीं श्रीऋषभदेव-आदि- निद्रा निष्पग्ग्रिहस्तत्वब्रह्ममार्गे सम्यकसंपन्नः नाथका वर्णन आया है वहाँ उनको परमहंस-मागेका शद्धमानमः प्राणसंधारणार्थ यथोक्तकाल पचप्रवर्तक बतलाया है, और यह परमहंममाग उत्कृष्ट गहेप करपात्रेणायाचिताहारमाहरन् लाभालाभ योगमार्ग है, इमीस 'नागदपरिव्राजकोपनिषद्' में समो भूत्वा निर्ममः शुक्लध्यानपगयणोऽध्यात्म दो 'यांगो परमह मारख्यः माक्षान्माक्षकमाधनम् । निष्ठः शुभाशुभकर्मनिर्मूलनपरः परमहंसः पूर्णाइस वाक्यके द्वारा परमहंम योगीको माक्षात माक्षका नन्देकरांधस्तद्ब्रह्मोऽहमस्मीति ब्रह्मप्रणवमनस्मएक मात्र माधन बतलाया है । उनिपदाम परमहस रन भ्रपरकीटकन्यायेन शरीरत्रयमुत्मज्य देहयोगीकी चर्याका जो वर्णन है उसका कुछ नमूना इस त्यागं करोति म कृतकृत्या भवतीत्युपनिषद् ।" प्रकार है : -परमहंसोपनिषद् । "तरीयः परमो हंसः साक्षान्नागयणो यतिः । अर्थात-'चौथा परमहंस यति साक्षात् नारायण एकगत्रं वसेग्रामे नगरे पंचरात्रकम् । होता है । वह प्राममें एक रात बसे और नगरमें पाँच ... गत तक, तथा वर्षा ऋतुमें अन्यत्र चार महीने निवास ___*पं. सुखलालजीका एक विस्तृत लेख अनेकान्तकी गत किरण (E, ७ ) में प्रकाशित हुआ है और दूसरा इसी संयुक्त करे । प्राममें दो रात्रि नहीं रहना चाहिये । यदि भिक्ष किरणमें अन्यत्र प्रकाशित है। इन दोनों में भी योगदर्शन-विषयक प्राममें दो रात रहता है तो उसके रागादिक दोष उत्पन्न बहुत कुछ सादृश्यका उल्लेख है। -सम्पादक होते हैं, जिसमें वह नारकी हाना है । संयतात्मा योगी
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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