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________________ अनेकान्त ५४० मामके बाहर निर्जन प्रदेश में बिना घरके ठहरें और पृथिवीतलको देखता हुआ बिहार करे । परंतु रात्रिको मध्यान्हके समय तथा दोनों संध्याकालों में ( सुबह शाम के वक्त ) विहार नहीं करे । परमहंसाश्रमी योगीके लिये चूँकि स्नानादिकका विधान नहीं है इसलिये वह केवल अपनी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियों का त्याग करे जो मुनि सब जीवों को अभयदान देता हुआ विचरता है उसे किसी भी जीवसे कहीं भय उत्पन्न नहीं होता । करपात्र में आहार करने वाला यह ( परमहंस ) योगी एक बारसे अधिक भिक्षाभोजन नहीं करे | । , 'ऐसा जान कर ब्राह्मण ( ब्रह्मज्ञानी ) पात्र, कमडलु, कटिसूत्र और लंगोटी इन सब चीजों को पानी में विसर्जन कर जन्मसमयके वेषको धारण करश्रर्थात् बिलकुल नग्न होकर – विचरण करे और आत्मान्वेषण करे । जो यथाजात रूपधारी (नग्न दिगं बर), निर्द्वद, निष्परिग्रह, तत्त्वब्रह्ममार्ग में भले प्रकार सम्पन्न, शुद्धहृदय, प्राणधारण के निमित्त यथोक्त समय पर अधिक से अधिक पाँच घरोमें विहार कर करपात्र में याचितः भोजन लेनेवाला तथा लाभालाभमें समचित्त होकर निर्ममत्व रहने वाला, शुक्ल ध्यानपरायण, अध्यात्मनिष्ठ, शुभाशुभ कर्मों के निर्मूलन कर नेमें तत्पर परमहंस योगी, पूर्णानन्दका अद्वितीय श्र नूव करने वाला वह ब्रह्म मैं हूँ ऐसे ब्रह्म णवका स्मरण करता हुआ, भ्रमरकीटकन्याय से (कीटकां भ्रमरीं ध्यायन् भ्रपरत्वाय कल्पते' - कीड़ा भ्रम * भोजन 'प्रयाचित' प्रादि रूपसे होना चाहिये, यह बात 'पितामह' के निम्न वाक्यसे भी पाई जाती है: - [वर्ष १, किरण ८, ९, १० रीका ध्यान करता हुआ स्वयं भ्रमर बन जाता है, इस नीति से ) तीनों शरीरोंको छोड़ कर देहत्याग करता है वह कृतकृत्य होता है, ऐसा उपनिषदों में कहा है ।' उपनिषदोंका यह सब वर्णन दिगम्बर जैन मुनियों अथवा जिनकल्पी साधुओं की चर्यासे बहुत कुछ मिल ता जुलता है - इसमें नग्न रहना, स्नानादिक न करना पृथिवीतलको शोध कर चलना, रात्रि आदिके समय विहार न करना, करपात्रमें एक बार प्रारणसंघारणार्थ अयाचित भोजन करना, शुभाशुभ कर्मोंका निर्मूलन करना और शुध्यानपरायण होना आदि कितनी ही बातें तो दिगम्बर जैन मुनियों की खास चर्यायें है । और इससे यह मालूम होता है कि भगवान् आदिनाथने जिम परमहंस मार्गका प्रवर्तन किया था अथवा जिस उत्कृष्ट योगमार्गका उपदेश दिया था उस दूसरोंने भी अपनाया है और उसकी कितनी ही छाया पुरातन अजैन ग्रंथोंमें अभी तक भी पाई जाती है, अथवा यों कहिये कि भगवान आदिनाथकी कितनी ही योगविद्या जेन प्रथोमें सुरक्षित है । 'याचितमसंक्लृप्तमुपपन्नं यदृच्छया । जोषयेत सदा भोज्यं प्रासमागतमस्पृहः ॥ यतिधर्ममहः । हाँ, एकबात यहाँ और बतला देनेकी है, और वह यह कि पुराणों में आदिनाथको महादेव जीका ( शिवशंभुका अवतार माना है और इसलिये योगशास्त्रों में जहाँ 'आदिनाथ' नाम आता है वहाँ टीकाओं में उसका अर्थ 'महादेव' ( शिव-शंभु ) किया जाता है X, परन्तु यह पीछकी कल्पना जान पड़ती है; क्योंकि अमरकोषादि किसी भी कोष में महादेवका नाम 'आदिनाथ' नहीं मिलता और ऊपरके संपूर्ण x यथा: आदिनाथः शिवः । सर्वेषां नाथानां प्रथमो नाथः । ततो नाथ सम्प्रदायः प्रवृत्त इति ना सम्प्रदायिनो वदन्ति । - हठयोगप्रदीपिका टीका ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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