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________________ योगमार्ग श्राषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६ ] कथनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि युगकी आदिमें जैनियोंके आदि तीर्थकर ( श्रादिजिन) श्री आदिनाथ - ऋषभदेव - द्वारा योगविद्या का आविष्कार तथा प्रचार हुआ है और वे ही परमहंस मार्ग के आदिप्रवर्तक थे, जिसमें अन्य वातों के अतिरिक्त, शुक्लध्यानपरायणः यह परमहंसका विशेषरण जैनधर्मकी एक स्नास चीज़ है— जैन के सिवाय और किसी भी योगप्रन्थ में 'शुक्लध्यान' का प्रतिपादन नहीं मिलता, पतंजलि ऋषिने भी ध्यान के शुलध्यान आदि भेद नहीं बतलाये - और इसलिये योग प्रन्थों में आदियोगाचार्य के रूपमें जिन श्रादिनाथका उल्लेख मिलता है वे जैनियोंक आदितीर्थंकर श्री आदिनाथ से भिन्न और कोई नहीं जान पड़ते । श्री आदिनाथ के द्वारा प्रतिपादित यांगकी अंतिम पुनरावृत्ति जैनियो के अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर के द्वारा हुई – उनकी दिव्यध्वनिद्वारा वह अपने पूर्ण रूपमें फिरसे प्रकाशित हुआ और पर्वश्रुतरूपसे उनके आगममें निबद्ध हुआ । भगवान् महावीर जिनकी देशना की बाबत कहा गया है कि वह आदिनाथकी देशना के साथ सबसे अधिक साम्य रखती हैयोगकी साक्षात् मूर्त्ति थे, न्होने बारह वर्ष तपश्चरण कर असाधारण सिद्धिकी प्राप्ति की थी, वे इस युगके असाधारण योगिरा ही नहीं किन्तु एक त्रिकालदर्शी विश्वचक्षु और केवलज्ञानी महात्मा थे; और इसलिये उनके द्वारा योगविद्या फिरसे अपने असली रूप में उदयको प्राप्त हुई थी, और उनके योगागमने लोक में खास ख्याति प्राप्त की थी, इसीसे श्री सिद्धसेन जैसे महान् श्राचार्योंने आपके योगागम के विषय में लिखा है कि, उसके सामने बड़े बड़े देवता और इन्द्रादिक मुग्धशक्ति हो जाते हैं और सुरलोकमें जन्म लेनेका अपना अभिमान छोड़ देते हैं: ५४१ शताध्वगया लवसप्तमोत्तमाः सुरर्षभा दृष्टपरापरास्त्वया (१) । त्वदीय-योगागम-मुग्धशक्तय स्त्यजन्ति मानं सुरलोकजन्मजम् ||३१|| - प्रथमा द्वात्रिंशिका | आपके इस योगागमसे, जिसमें श्रीश्रादिनाथकी वह सारी योगविद्या - योगप्ररूपणा - शामिल है, परमहंसकी उक्त चर्या जैसी बहुत सी अच्छी अच्छी बातें दूसरे सम्प्रदायों में पहुँची हैं और वे फिर उनके ग्रन्थो में निबद्ध हुई हैं । जान पड़ता है इसीसे श्रीसि द्धसनाचार्यने निम्न वाक्यके द्वारा, जिसे कलंक देवने भी अपने 'राजवार्तिक' में उद्धृत किया है, मुनिश्चित रूपसे यह प्रकट किया है कि 'अन्यमतके शास्त्रोंकी योजनाओं में जो कुछ सदुक्तियाँ - अच्छी अच्छी बातें - पाई जाती हैं वे सब आपके पूर्व महार्णव से ( १४ पूर्वरूपी महासमुद्र से ) उछली हुई आपके ही वचनों की बूँदें हैं ' : सुनिश्चितं नः परतन्त्र युक्ति पु, स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्तसम्पदः । वैताः पूर्वमहार्णवोत्थिता - जगत्प्रमाणं जिन वाक्यविशेषः ||३०|| - प्रथमा द्वात्रिंशिका | इस तरह जैनधर्ममें जिस यांगका इतना माहात्म्य है - जिम यांगपर जैनोंका सारा अभ्युदय निर्भर है, जो योग विद्या जैनियोंके श्रादितीर्थंकर श्री आदिनाथ के द्वारा इस युगकी श्रादिमें अवतरित हुई तथा दूसरे तीर्थकरोंके द्वारा प्रचार में आई और जिसे दूसरे धर्मों अथवा धर्मसमाजोंने भी अपनाया, उसकी जैनसमाजमें आज प्रायः कुछ भी चर्चा नहीं है, यह देख कर
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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