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अनेकान्त
[वर्ष १,किरण ८, ९,१० निःसन्देह, बड़ा ही खेद होता है ! जैनी अपनी इस सब त्रुटियाँ बहुत कुछ दूर हो सकती हैं, योगमाहित्य'उपेक्षा तथा प्रमादसे योगके असीम साहित्यको खो की टूटी हुई कड़ियाँ भी जुड़ सकती हैं और जो कडिचुके हैं !! उनके वे 'पर्वमहार्णव' और इन्द्रादिकोंके याँ अपने यहाँ उपलब्ध न हों उनका परस्पराविगंधगर्वको चूर चूर करने वाले 'योगागम' आज विद्यमान मार्गस, विकृतावस्थामें भी प्राप्त होने वाले अन्य माहिनहीं हैं ! ! ! फिर भी योग-विषयक जो कुछ साहित्य त्यपरस, पनः निर्माण किया जा सकता है। अन्य मा अवशिष्ट है वह भी कुछ कम नहीं है। परन्तु वह सब हित्यमें, जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, योगविषयक इधर उधर बिखग हुआ है-कोई बात किसी ग्रंथमें बहुतसा मूल कथन इधरसे ही गया हुआ है, और है तो कोई किसीमें, उसका कोई एक सुव्यवस्थित इसलिये प्रयत्न करने पर उसकी संगति भले प्रकार रूप नहीं है ; कितनी ही कड़ियाँ उसकी बीच में ट्टी मिलाई जा सकती है । वास्तवमें देखा जाय तो शुद्ध हुई जान पड़ती हैं, उसमें अधिकतर गजयांगका दर्शन यांगमें कहीं भी कुछ भेद नहीं है । शायद इसीसे जैहाता है; परन्तु गजयांग रूपी अनि उत्तुंग महल पर नाचार्य श्रीहरिभद्रसृग्निं कहा हैचढ़नके लिये नीचे की सीढ़ियाँ खंडित प्रतीत होती ह- मोक्षहेतुर्यतो योगो भिद्यते न ततः कचित । कितनी ही बी वकी सीढियोंका तो दर्शन तक भी नहीं साध्याभेदात्तथाभावे तक्तिभेदो न कारणम || होता । इसीस इम सुन्दर महल पर चढ़नकी इच्छा
-योगविन्दु । होते हुए भी, चढ़नकी आम तौर पर कोई प्रेरणा नहीं अर्थात्- 'योग चकि मोक्षका हंतु है इसलिये होती; जो लोग चढ़ते हैं वे आगे जाकर भटक जात साध्याभेदके कारण-साध्यका अभेद हात हुएहैं और गजयोगका ढौंग करने लगते हैं । यही वजह उसमें कहीं भी कुछ भेद नहीं है । महज उक्तियों का है जो आज जैनसमाजमें बहुतमे मुनियों के मौजूद होत भेद उस भेदभावके लिय कोई कारण नहीं हो सकता हुए भी कोई अच्छा योगी अथवा योगविद्याका अच्छा -उससे कोई वास्तविक भेद नहीं बनता। जानकार नहीं मिलता-प्रायः योगका ढोंग करने उक्तिभेदमें भेद भी शामिल है। जैनधर्मकी वाले ही दग्वे जान है । और यह स्थिति देश तथा म- दृष्टि अनेकान्तमय, वस्तुतत्त्वको सब ओग्मे दग्वन माजके लिये अच्छी नहीं है । साथ ही, यह ग़लत- वाली एवं उदार तथा विशाल होनस उसका योग भी फहमी भी फैली हुई है कि योगका अनुष्ठान एक मात्र तद्रप अनेकान्तदष्टिको लिये हुए है । जब कि दूसर मुनि ही कर सकते हैं, दूमर नहीं-उन्हीं के लिये धर्मोकी दृष्टि प्रायः एकान्तमय, वस्तुतत्त्वका एक ओरइसका उपदेश है, गृहस्थांके लिये नहीं । परन्तु ऐमा से देखने वाली एवं संकुचित तथा अनुदार होनम नहीं है । योगका प्रारंभ गृहस्थाश्रमस भी पहलस हाना उनके योगप्ररूपण में भी प्रायः एकान्तता पाई जाती है और उसका बहुतमा भाग गृहस्थोंके लिये बहुत ही है। परन्तु यह दृष्टिभेद एक अनकान्तवादी अथवा उपयोगी है।
म्याद्वादीका सम्पर्क पाते ही सहज ही दूर हो जाता यदि योगविषयक साग जैनसाहित्य खोज करके है। ऐसी हालतमें योगविषयका जो अविरुद्ध कथन है उसका एक अच्छा संकलन नय्यार किया जाय तो ये उसको अन्यत्रमे ग्रहण करनेमें कुछ भी आपत्ति नहीं