SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 435
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ वर्ष १, किरण ८, ९, १० विषय पर 'रेड रशिया वार' (रूसवालों के युद्ध) के साथ सादृश्य नहीं रखता । योरोप के नास्तिक सिद्धान्त में किसी प्रकार के ईश्वर को स्थान नहीं है । वह अनात्मवादी की तरह से ही अनीश्वरवादी है । वह प्रकृतिपूजा का एक रूप है। वह केवल शारीरिक सुखों को पुत्र करने का एक मार्ग है। यही वजह है जो वर्त - मान युग सदाचार (नीति) की भयंकर गिरावट के कारण कष्ट पा रहा है । हमें भयानक अपराधों का, अवक्तव्य पतनों का और घृणा तथा कांध से संतप्त संसारकी उन जातियोंका वृत्तान्त सुन सुन कर आश्चर्य होता है, जो बाह्य में तो शान्ति दिखाती हैं, अंतर्ग ट्रीय सभाएँ स्थापित करती हैं परन्तु भीतर से उनके विचार मार-काट, लूट-खसोट, प्रतिहिंसा, और लोभलालच से भरे हुए हैं। वे एक दूसरे की बढ़तीको नहीं देख सकतीं। वे एक मेज के मित्रों की तरह प्रच्छन्न शत्रु हैं जो गुप्तरूप से एक दूसरे का पतन और नाश चाहती हैं। ४५६ अन्त तथा सुविचारता के साथ निरूपण नहीं किया गया है। बौद्ध धर्म में हम यह उपदेश पाते हैं कि, संसारी जीव-दुःखों से परिपूर्ण है और इन दुःखों से मुक्त होनेका साधन अपनी इच्छाओं का निरोध अथवा नाश करना है और इच्छाओं के नाशका नाम ही निर्वाण है । परन्तु जैनधर्म एक बिल्कुल दूसरेही प्रकार से शिक्षा देता है। वह कहता है-"वीर बनो, जिन बनो, और अपने सर्वानंदमय स्वभाव को प्राप्त करो । आत्मा आनन्द चाहता है, उत्कर्ष चाहता है । तुम्हारा उत्कर्ष मात्र इस दुःखमय कारागार (शरीर) में रहते नहीं होगा, तुम परमात्मा हो, परमेश्वर से किसी प्रकार कम नहीं हो, तुम्हारे स्वाभाविक गुण पृथिवीरज में नहीं पाये जाते, तुम इससे बहुत ऊँचे हो, तुम प्रतापसूर्य । ऐ मर्त्य मनुष्य ! भय मत करो, तुम अविनाशी ईश्वर हो- शक्ति रूपसे परमात्मा हो-ये केवल तुम्हारे कर्म हैं जो तुम्हें पुद्गल के साथ बाँधे हुये हैं और वे भी तुम्हारे कर्म - सदाचार - ही होंगे जो तुम्हारी बेड़ियों को काट कर तुम्हें फिर से तुम्हारे सर्वानन्दमय स्वरूपका बोध कराएँगे ।" फिर कहिये ! यह धर्म कैसे नास्तिक हो सकता है ? परमात्मपद का प्राप्त करना ऐसा सिद्धान्त नहीं है जिसका उपहास किया जाय । यह एक गहरे विचार का मामला है । बहुत से मनुष्यों ने अज्ञानवश जैनधर्मको अनी श्वरवादी - एक प्रकारका नास्तिक - समझा है । परन्तु वास्तव में यह वैसा नहीं है। यह वर्तमान युगका नास्तिक नहीं है । यह योरोपका अनीश्वरवादी नहीं है । यह " खाना पीना और मौज उड़ाना " नहीं है, इस खयाल से कि हमें कल को मरना होगा और कौन जानता है कि मरने के बाद क्या होता है। यह ईश्वर इन सब बातों के होने का कारण क्या है ? उत्तर बहुत सरल है । यही कि मनुष्यने अपनी नश्वर वासना को पुष्ट करने का विचार बहुत बढ़ा लिया है । गोबर के ढेर में पड़े हुए गुबरीले की तरह मनुष्य पतन करने वाली वस्तुओं में आनन्द मानता है, उन्हें अपने विज्ञान की उत्तम प्राप्ति समझता है और इन तपस्या के आचारों की हँसी उडाता है - धार्मिक विचारोंका ही उपहास करता है । अब विज्ञान ने तो ईश्वर और आत्मा के प्रश्नको उठा दिया है, उसके लिये तो एक मात्र शरीर का ही प्रश्न अवशिष्ट रह गया है । परन्तु जैनधर्म उसकी इस बात से किसी तरह भी सहमत नहीं है । हाँ, हम लोगों के लिये जो एक ईश्वर में श्रद्धा
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy