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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] भगवान महावीर की शिक्षा
४५७ रखते हैं एक सर्वेश्वर व्यक्ति परमात्मा की अश्रद्धा से का सिद्धान्त दिखाई देता है, एक पाप का ईश्वर और सम्बंध रखने वाली उसकी व्याख्याओंको मानना दूसरा पुण्य का ईश्वर है । दोनों समान शक्तिशाली कठिन है । परन्तु एक ईश्वर के मानने वालो में जो हैं और बराबर एक दूसरे के साथयुद्ध करते रहते हैं। परम्पर मतभेद-विरोध-है उसे देखते हुए एक और बेचारे दीन मनुष्य दोनों के निर्दय संग्राम में मनुष्य स्वभाव से ही ईश्वरके अस्तित्वविषयमें मूढ पीड़े जाते हैं । ईसाई मत में, मुसलमानी मजहब में, हो जाता अथवा संदेह करने लगता है । उदाहरण के यहूदी और पारसी धर्मों में ईश्वर और शैतान साथ तौर पर संसार के वर्तमान ईश्वरवादी (आस्तिक ) साथ दिखाई पड़ते हैं । और इन एजंटों के द्वारा होने मतों को लीजिये। मुसलमानों का खुदा अायों के वाले विश्व के दृश्यो की व्याख्या करने के लिये बहुत ईश्वरसे भिन्न है और यहूदियोंका परमात्मा हिन्दुओं से सिद्धान्त गढे गए हैं । परन्तु दुःख, मृत्य और पाके तथा ईसाइयों के भी ईश्वरसे और अधिक भिन्न लोक का प्रश्न अभी तक गहरं अन्धकार में ही पड़ा है। इन धर्मों के अनुयायी सदा एक दूसरे से झगड़ा हुआ है-ये धर्म इस विषय में कुछ भी स्पष्ट नहीं करते हैं, हमेशा के लिये एक दुसरेके धार्मिक विचारों बतलातं । यदि कहा जाय कि श्रात्मा अपने कमों के को पाखण्ड बतलात हैं-एक दूसरे के ईश्वर की अनुसार दुःख भोगता है और ईश्वर इसमें हस्तक्षेप निन्दा करते हैं । वे सदा अपने ही सिद्धान्तोंको ठीक करने के लिये असमर्थ है, वह केवल श्रात्मा के कष्टबतलाते और अपने धर्मशास्त्रों को ईश्वरप्रेषित प्रति- भोग का एक माक्षीमात्र है तो क्या फिर ऐसे निर्बल पादन करनेका यत्न करत हैं । तथा साथ ही, वे अन्य और निःशक्त ईश्वरकी उपेक्षा करना और अकेले कर्म धोको क्षुद्र और असत्य ठहराना चाहते हैं । कहिये । पर ही भगमा रण्वना अधिक युक्तियुक्त न होगा ? ईश्वर अपने ही विरुद्ध कैसे खड़ा हो सकता-बोल यदि कोई मनप्य अपना हाथ अग्नि में डाले तो सकता-और आँखमिचौली खेल सकता है ? और वह अवश्य जल जायगा । हम जैसा बीज बोते हैं फिर यह कैसे अविरुद्ध हो सकता है कि एक सर्व- वैसा ही फल पाते हैं, शायद इमी युक्तिक आधार पर शक्तिमान, सर्वानन्दमय, विश्वप्रेमी और परमदयाल परमात्मपद-प्राप्ति के युद्ध में आत्मा को वीर और परमात्मा ऐसे विश्व की सष्टि करे जो दुग्वदों तथा बलिष्ठ बनाने के लिये जैनधर्म ने ईश्वरके प्रश्न को कष्टों से पूर्ण है ? एक विचारशील के लिये यह बात बिलकुल ही छोड़ दिया है। बहुत ही खटकती है। ईश्वर इन दीन मर्त्य प्राणियों चाहे कुछ भी हो, हम लोग जो केवल एक ईश्वर के कष्टों को जानते हुए भी व्यर्थ दुःख उठाने के लिए में विश्वास रखते हैं अब भी इस विषय में मतभेदको उनकी सृष्टि कैसे कर सकता है ? यदि ईश्वर वास्तव लिये हुए हैं और एक अदृष्ट परमात्मा पर भरोमा करने में जगत का परम पिता होता तो क्या वह मर्त्य पिता और अपनी समस्त निर्बलताओं तथा त्रुटियों को उसी से भी अधिक निर्दयता के साथ यह चाहता कि उसके के कंधों पर डाल देते हैं, और एक अज्ञात व्यक्ति की बच्चे ये अनन्त कष्ट भोगें ? यही कारण है कि प्रायः पूजा-प्रार्थना करना पसंद करते हैं। यह हमारी कमजोरी सभी ईश्वरवादी धर्मों में हमें दो ईश्वरों के अस्तित्व है । शायद वह समय शीघ्र आ जाय कि हमारी यह