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अनेकान्त
कमजोरी भी न रहे । और मैं कहती हूँ कि वह समय निकट आ गया है । पाश्चात्य संसार ने ईश्वर कं. श्र स्तित्व को हृदय से प्रायः निकाल ही दिया है, और उसके स्थान पर ऐसे विभिन्न सम्प्रदाय तथा विभिन्न समाज उदय को प्राप्त होगये हैं जो जैन धर्म के साथ बहुत ही सादृश्य रखने वाले विचारों को मानते और उन पर अमल करते हैं ।
उदाहरण के तौर पर हम ध्यांसोफिकल सोसा इटियों का ले सकते हैं। उनकी शिक्षाएँ और आत्मतत्त्व-प्रचार की बातें जैनधर्म के साथ बहुत ही मिलती जुलती हैं, वे भी एक प्रकार से जैनधर्म के ही शिक्षक हैं। ऐसे समाजों की संख्या दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। इस समय उगते हुए युवक संसारका यह मत है कि या तो धर्म में सहिष्णुता हो, या एकना हो अथवा बिल्कुल ही कोई धर्म न रह; धर्म ने संसारका बहुत ही अस्वस्थ - असाधु — बना दिया है, इसलिये उसे छोड़ देना चाहिए | और उसके स्थान पर वे मनुष्यता तथा विश्वबन्धुता का उपदेश देते है। क्या यह सब महर्षि महावीर की शिक्षाओं का सार नहीं है ? जब पारस्परिक मतभेद - विरोध-दूर हो जाते हैं तो केवल प्रीति और मित्रता रह जाती है, जो आपस में बन्धुता के भाव पैदा कर देती है। ये मर्त्य मनुष्य, जिनमें श्राप और मैं सब सम्मिलित हैं, वस्तुतः दिव्य - ईश्वर तुल्य प्राणी हैं, यह विचार आत्मा को शान्ति और संतोष का दाता है। इससे क्षोभ मिट जाता है, नरकका भय दूर हो जाता है और हम ऊँचे ऊँचे उठते एवं उन्नति करते चले जाते हैं ।
जब सब लोग इन उदात्त सिद्धान्तों को समझ जायँगे, जब पशु से मनुष्य तक सभी एक दूसरे से भाई की तरह हाथ मिलायेंगे और संपूर्ण सृष्टि परस्पर आनन्दमग्न होगी तो उस समय यह संसार कितना सुंदर एवं मनोज्ञ मालूम देगा ।
[वर्ष १, किरण ८,९,१०
उनका संदेश संसार भर के उन सभी प्राणियों के लिये, जो असंख्य जन्मों तथा मरणोंके थका देनेवाले मार्ग में परिभ्रमण कर रहे हैं, यह है कि - तुम्हारे ही कर्मों से दुःख दूर होंगे, पाप धुल जायँगे और तुम पूर्ण सुखी तथा आनन्दमय ईश्वर हो जाओगे । और यह सब कुछ तुम्हारे ही हाथ की बात है । यह किसी सुरलोकस्थ ऐसे महान् देवताकी शक्तिके आधीन नहीं है, जो तुम बहुत दूर है - तुम्हारे दुःखों, शांकां तथा कष्टों के क्षणों से दूरवर्ती है । यह तुम से बाहर नहीं है, मुक्ति तुम्हारे ही अन्दर है, पूर्ण आनन्दका रम्य स्थान तुम्हारे ही आत्मा के भीतर विद्यमान है। ये सब तुम्हारे ही कृत्य होंगे जो उस अपूर्व आनन्द का तुम्हारे आत्मा में विकाश करेंगे। क्यों दुःख उठाते और चिलाने हुए धूल में पड़े हो ? निर्बलता, अन्धकार (अज्ञान ) भय और मृत्यु से ऊपर उठो । तुम अविनाशी हो, तुम दिव्य हो । संसार इस दिव्य गीत को हर्षावेश से सुनता है और इसी में उसकी मुक्ति है ।
सारांश, महावीर स्वामीकी शिक्षा में सत्य के तीन बड़े सिद्धान्त संनिहित हैं- - एक अहिंसा, दूसरा नश्वर वासनाओं पर विजय, और तीसरा परमात्मपद की प्राप्ति । अत्र आप स्पष्ट देख सकते हैं कि ये तीनों अ वस्थाएँ एक दूसरेके साथ सम्बद्ध हैं। मनुष्य श्रहिंसा का पालन करता है और उस के पालन द्वारा नश्वर विषयवासनाओं पर विजय प्राप्त करता है और इस तरह परमात्मपद प्राप्त हो जाता है।
यह दृष्य महर्षि महावीर स्वामी के ज्ञान में झलका। उन्होंने इसे स्वयं देखा, अनुभव किया और संसार के हित के लिये - अपने दुःखित भाइयों के लिये - इसका उपदेश दिया ।
यही भगवान् महावीर की शिक्षाओं का सार है । उन्होंने खुद हिंसा का पूर्ण रूप से पालन किया, संसार के विषयभोगों को त्याग दिया और परमात्म पद को प्राप्त किया ।
क्या हो अच्छा हो, कि हम उनके इस पवित्र आदर्श का अनुकरण करें और शुद्ध कैवल्य तथा नित्यानंद अवरा को प्राप्त हो जायँ ।
अनुवादक - भोलानाथ जैन मुख्तार