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मार्गशिर, वीरनि० स०२४५६ भगवान महावार और उनका समय
इसमें बतलाया गया है कि 'महावीरके निर्वाण से और यही इस वक्त प्रचलित वीर निर्वाण मंबन की ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक राजा हुआ, और शक वर्षसंख्या है । शक संवत् और विक्रम संवत्में १३५ राजासे ३९४ वर्ष ७ महीने बाद कल्की राजा हुआ ।' वर्षका प्रसिद्ध अन्तर है । यह १३५ बर्षका अन्तर यदि शक राजाके इस समयका समर्थन ‘हरिवंशपुराण' उक्त ६०५ वर्षसे घटा दिया जाय तो अवशिष्ट ४७० नामके एक दूसरे प्राचीन ग्रन्थसे भी होता है जो वर्षका काल रहता है, और यही वीरनिर्वाणके बाद त्रिलोकसारस प्रायः दो सौ वर्ष पहलेका बना हुआ विक्रम संवत्की प्रवृत्तिका काल है, जो ईस्वी सनसे है और जिसे श्रीजिनसेनाचार्यन शक सं० ७०५ में ५२७ वर्ष पहले वीरनिर्वाणका होना बतलाता है। और बना कर समाप्त किया है । यथा :
जिसे दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय वर्षाणां पटशतीं त्यक्त्वा पंचाग्रां मामपंचकम्! मानते हैं । मुक्तिं गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् । अब मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि त्रि
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लोकसारकी उक्त गाथामें शकराजाके समयका-वीरइतना ही नहीं, बल्कि और भी प्राचीन ग्रन्थोंमें
र निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीने पहलेका-जो उल्लेख इस समयका उल्लेख पाया जाता है, जिसका एक
है उसमें उसका राज्यकाल भी शामिल है; क्योंकि उदाहरण त्रिलोकप्रज्ञप्ति' का निम्न वाक्य है
एक तो यहाँ 'सगराजो' के बाद 'तो' शकका प्रयोग हिमाणे वीर जणे छवाससदेम पचवारिसेस। किया गया है जो 'ततः' ( तत्पश्चात् ) का वाचक है पणमासेमु गदेमु संजादो सगणिो अहवा।।
और उससे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि शकराजा
- की सत्ता न रहने पर अथवा उमकी मृत्युसे ३९४ वर्ष शकका यह समय ही शक मंवतकी प्रवृत्तिका काल है, और इसका समर्थन एक पुरातन श्लोकस भी
७ महीने बाद कल्की राजा हुआ। दूसरे, इस गाथामें होता है, जिम श्वतम्बराचार्य श्रीममतंगने अपनी
कल्कीका जो समय वीरनिर्वाण से एक हजार वर्ष तक
(६०५ वर्ष ५ मास+६९४ व०७ मा०) बतलाया गया 'विचारश्रेणिक' में निम्न प्रकारम -द्धृत किया है:श्रीवारनिर्व तेवः पड़भिः पंचात्तमैः शतः। १
है उसमें नियमानुसार कल्की का राज्य काल भी श्रा
- जाता है, जो एक हजार वर्षके भीतर सीमित रहता है। शाकसवत्सरस्येपा प्रवृत्तिभरतेऽभवत् ॥
_ और तभी हर हजार वर्ष पीछे एक कल्की के होने का ___ इसमें, स्थल रूपसे वर्षोंकी ही गणना करते हुए, साफ लिखा है कि ' महावीरके निर्वाणसे ६८५ वर्ष
वह नियम बन सकता है जो त्रिलोकसारादि ग्रंथों के बाद इस भारतवर्षमें शक संवत्सरकी प्रवत्ति हुई। निम्न वाक्यों में पाया जाता है:शक संवतके इस पूर्ववर्ती समयको वर्तमान शक संवत
इदि पडिसहस्सवम् वीस १८५१ में जोड़ देनसे २४५६ की उपलब्धि होती है। ककीणदिक्कमे परिमो।
जलमंथणो भविस्सदि १ त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें शककालका कुछ और भी उल्लेख पाया जाता है और इसीसे यहाँ 'प्रथवा' शब्दका प्रयोग किया गया है । कक्की सम्मग्गमत्थणा ।। ८५७।। परन्तु उस उल्लेख का किसी दूसरी जगह मे समर्थन नहीं होता।
-त्रिलोकमार।