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________________ २६४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ है, तो भी उसे आगमिक पद्धतिके पीछे ही अनुक्रमसे में,सबसे पहले गूंथने वाले जैनाचार्य वाचक उमास्वाति पार्शनिक संघर्षण तथा तर्कशास्त्र के परिशीलन की हैं। इससे वे उक्त प्रश्न का समाधान किये बिना नहीं वृद्धि के परिणामस्वरूप योग्य स्थान प्राप्त हुआ है, रहें यह स्पष्ट है। तत्त्वार्थके पहले अध्यायमें मुख्यरूपऐसा भासता है। मे ज्ञान का निरूपण है । उसमें वाचकश्री उमास्वाति __ मूल अंग-प्रन्थोंमेंसे तीसरे स्थानांग' नामके ने आगमिक पद्धति की भूमिकाके ऊपर तार्किक बागममें तार्किक पद्धतिके दोनों प्रकारों का निर्देश है। पद्धति को घटित किया है। ज्ञानके मति, श्रुत, आदि 'भगवती' नामक पाँचवें अंगमें चार भेद वाले द्वितीय पाँच भेद बता कर उन्हें तार्किक पद्धतिके प्रथम प्रकार प्रकारका निर्देश है। मूल अङ्गोंमें आगमिक और में घटित करते हुए वाचकश्री कहते हैं-पहले दा तार्किक दोनों पद्धतियोंसे समग्र ज्ञानवृत्तिका निरूपण ज्ञान परोक्ष, और बाक़ीके तीन प्रत्यक्ष हैं । परोक्ष और होने पर भी कहीं इन दोनों पद्धतियों का समन्वय प्रत्यक्ष इन दो भेद वाली प्रथम प्रकार की तार्किक कराया गया हो ऐसा दृष्टि गोचार नहीं होता । श्रीमद्- पद्धति को आगमिक पद्धतिमें घटित करने वाले श्रागभद्रबाहु-कृत दशवैकालिकनियुक्ति ( प्रथमाध्ययन ) माभ्यासी वाचकश्री आगमोंमें उल्लिखित चार भेद में न्यायप्रसिद्ध परार्थ अनुमानका अति विस्तृत और वाली दूसरी तार्किक पद्धति को भूल जायें ऐसा होना अति स्फुट वर्णन जैनदृष्टिसे किया गया है, उस पर से असंभव है, इससे ही उन्होंने अपने तत्त्वार्थ भाष्य में इतना तो मालम होता है कि नियुक्तकारके पहले ही 'चतुर्विधमित्येके' कह कर चार प्रमाणों को भी वार्किक पद्धति ने जैनशास्त्रमें स्थान प्राप्त किया होगा। सचित किया है। परंतु जिस तरह पाँच झानों को फिर भी नियुक्तिपर्यंत इन दोनों पद्धतियोंका समन्वय परोक्ष और प्रत्यक्ष ऐसे दो प्रमाणभेदोंमें सूत्र-द्वारा हुधा हो ऐसा जानने में नहीं आता। घटित किया है, उस प्रकार इन पाँच झानों को प्रत्यक्ष, ___ परंतु कालक्रमसे ज्यों ज्यों दार्शनिक संघर्ष और अनुमान आदि चार प्रमाणोंमें सूत्र या भाज्य-द्वारा तर्क का अभ्यास बढ़ता गया त्यों त्यों पहले से ही घटित नहीं किया। मात्र कोई चार प्रमाण मानते हैं भांगममें प्रचलित इन दोनों पद्धतियोंके समन्वय का इतना ही 'चतुर्विधमित्येके' इस भाष्य-वाक्य-द्वारा मरन अधिक स्पष्ट रूपसे उपस्थित होने लगा । प्रागम सूचित किया है । यह सूचन करते समय वाचकश्री में मूल मानके मप्ति, भुत भादि ऐसे पाँच विभाग हैं, के सामने "दूसरी चार भेद वाली तार्किक पद्धति जी उसी प्रकार प्रत्यक्ष, परोक्ष ऐसे दो; और प्रत्यक्ष, आगम में निर्दिष्ट हुई है वह जैन दर्शन को मान्य है अनुमान आदि ऐसे चार भी हैं, उनमें कोई विरोध है कि नहीं; और मान्य है तो उसमें भी पाँच भेदों को कि नहीं ? और यदि नहीं तो उसका समन्वय किस घटित क्यों नहीं किया ?" ऐसा जिज्ञासु शिष्यों का प्रकार १ यह प्रश्न उठने लगा। इसके उत्तर देने का अथवा प्रतिवादियोंका प्रश्न था । इस प्रश्नका निराप्रथम प्रयास वाचक उमास्वातिके तत्वार्थसूत्रमें हुभा वार्थमाष्य खुद उमास्वाति-क्त है, क विषय अभी जान पड़ता है। समम भागमों को दोहन करके समस्त बहुत मन सेवेहास्पद तथा विवादग्रस्त है और विशेष निर्णय की जैनपदार्थों को, लोकप्रिय दार्शनिक संस्कृत सूत्ररोसी अपेक्षा रखता है।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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