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________________ वीरनि० सं०२५५६] जैनोंकी प्रमाण-मीमांसा पद्धतिका विकासक्रम २६३ . . . . . जैनोंकी प्रमाण-मामांसा-पद्धतिका विकासक्रम [ लेखक-श्रीमान् पं० सुखलालजी] ज तक तत्त्व-चिन्तकोंने ज्ञानविचार- उसमें मानावरणीय कर्म के विभाग रूपसे मतिज्ञानाणा एवंप्रमाण-मीमांसामें जोविका- वरण, श्रुसज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायस किया है उसमें जैनदर्शनका कित- ज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण ( न कि प्रत्यक्षावरण, ना हाथ है ? इस प्रश्नका उत्तर प्राप्त परोक्षावरण, अनुमानावरण, उपमानावरण भादि ) करनेके लिये जब जैनसाहत्यको अ- ऐसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं। धिक गहराईसे देखा जाता है, तब हृदयमें साश्चर्य श्रानन्द दूसरी पद्धति को 'तार्किक' कहने के भी मुख्य को होनेके साथ साथ जैन तत्त्वचिन्तक महर्षियों के प्रति कारण हैं:बहुमान हुए बिना नहीं रहता, और उनके तत्त्वचिन्तन (क) एक तो यह कि, उसमें प्रयुक्त हुए प्रत्यक्ष, मननरूप ज्ञानोपासनाकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करनेके परोक्ष, अनुमान, उपमान आदि शब्द न्याय, बौद्ध लिये मन ललचाता है। आदि जैनेतर दर्शनों में भी साधारण हैं; और जैनसाहित्यमें शान-निरूपणकी दो पद्धतियों नजर (ख) दूसरे यह कि, प्रत्यक्ष, परोक्ष प्रादि रूपस पड़ती हैं-पहली 'मागमिक और दूसरी तार्किक' समप्र ज्ञान वृत्तिका पृथक्करण करनेमें तर्कष्टि प्रधान आगमिक पद्धतिमें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय रक्खी गई है। और केवल इस प्रकार पाँच भेद करके समप्र ज्ञानवृत्ति गणधर श्रीसुधर्म-प्रणीत मूल प्रागमोंसे लेकर का वर्णन किया गया है। तार्किक पद्धतिक दो प्रकार उपाध्याय यशोविजयजीकी कृतियों तक ज्ञाननिरूपणवर्णन किये गये हैं-(१)पहला प्रकार प्रत्यक्ष और परीक्ष विषयक समप्र श्वेताम्बर-दिगम्बर वाङ्मयमें ( मात्र इन दो भेदोंका, और (२) दूसरा प्रकार प्रत्यक्ष, अन्- कर्मशास्त्र को छोड़ कर) आगमिक और वाफिक दोनों मान, उपमान और आगम इन चार भेदोंका है। . पद्धतियोंको स्वीकार किया गया है। इन दोनों में भाग__ पहली पद्धति को 'पागमिक' कहने के मुख्य दो मिक पद्धति ही प्राचीन मालूम पड़ती है। क्योंकि जैन कारण हैं: . तत्त्वचिन्तनकी खास विशिष्टता और भिम प्रस्थान (अ) एकतो यह कि,किसीभीजनेतरदर्शनमें प्रयुक्त वाले कर्मशास्त्रमें वही पद्धति स्वीकार की गई है। इस नहीं हुए ऐसे मति, भुत, अवधि प्राविज्ञानविशेषवाची लिये यह भी कहा जा सकता है कि भगवान महावीरनामों द्वारा हानका निरूपण किया गया है, और के स्वतंत्र विचारका व्यक्तित्व मागमिक पद्धतिमें ही (भा) दूसरा यह कि, जैवश्रुत के खास विभाग- है। दूसरी तार्किक पद्धति जो कि, यद्यपि, अत्यंत रूप कर्मशासमें कर्म प्रकृतियोंका जो वर्गीकरण है प्राचीन कालसे जैन वाड्मयमें प्रविधी हुई मालूम होती
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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