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________________ २६२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ सद्धर्म-सन्देश [ लेखक-श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी] (१) __ जो चाहता हो अपना, कल्याण मित्र! करना___ जगदेकबन्धु जिनकी, पूजा पवित्र करना । दिल खोल करके उसको, करने दो कोइ भी हो; ____ फलते हैं भाव सबके, कुल-जाति कोइ भी हो ॥ मन्दाकिनी दयाकी, जिसने यहाँ बहाई; हिंसा-कठोरताकी, कीचड़ थी धो बहाई । समता-सुमित्रताका, ऐसा अमृत पिलाया; देषादि रोग भागे, मदका पता न पाया । (२) उस ही महान् प्रभुके, तुम हो सभी उपासक; . इस वीर वीरजिनके सद्धर्म के प्रचारक । अतएव तुम भी वैसे, बननेका ध्यान रक्खो; भावर्शभी उसीका, आँखोंके भागे रक्खो । . सन्तुष्टि शान्ति सबी, होती है ऐसी जिससे, ऐहिक क्षुधा-पिपासा, रहती है फिर न जिससे । वह है प्रसाद प्रभु का, पुस्तक-स्वरूप इसको, सुख चाहते सभी हैं, चखने दो चाहे जिसको । संकीर्णता हटायो, दिल को बड़ा बनायो; ___ निज कार्यक्षेत्रकी अब, सीमाको कुछ बढ़ाओ। सब ही को अपना समझो, सबको सुखी बनादो औरोंके हेतु अपने, प्रिय प्राण भी लगा दो। यूरुप अमेरिकादिक, सारे ही देशवाले, अधिकारि इसके सब हैं, मानव सफेद-काले । अतएव कर सकें वे, उपभोग जिस तरहसे, यह बाँट दीजिए उन, सबको ही उस तरहसे ।। ऊँचा उपार पावन, सुख-शान्ति-पूर्ण प्यारा। यह धर्मरत्न पनिको ! भगवानकी अमानत; ___ यह धर्मवृत्त सबका, निजका नहीं तुम्हारा। हो सावधान सुनलो, करना नहीं खयानत । रोको न तुम किसीको, छायामें बैठने दो। दो प्रसन्न मनसे, यह वक्त आ गया है। कुल-जाति कोई भी हो, संताप मेटने दो। इस पोर सब जगत का, अब ध्यान जा रहा है।। ' (९) कर्तव्यका समय है, निर्मित हो न बैठो; ... बोथी बड़ाइयोंमें, उन्मत्त हो न ऐंठो। . सतर्मन मेंदेशा, प्रत्येक नारि नरमें, सर्वस्व भी लगाकर, फैला से विश्वभरमें ।।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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