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________________ जैन की प्रमाण -मीमांसा - पद्धतिका विकासक्रम चैत्र, वीरनि०सं०२४५६] करण 'कोई चार प्रकारका प्रमाण मानते हैं' इतना कह देने से नहीं हो जाता । अधिकतर तो इस कथन- द्वारा इतना ही फलित होता है कि आगमों में स्थानप्राप्त यह प्रमाणों का विभाग कोई दूसरे दर्शनकारों द्वारा मान्य किया हुआ विभाग है; परंतु वह जैनदर्शन को अनिष्ट नहीं, इस बातको सूचित करने के लिये वाचकश्री आगे चल कर कहते हैं कि 'नयवादान्तरेण' अर्थात् चतुर्विध प्रमाणके विभाग को अपेक्षा विशेष से समझना । इसी संक्षिप्त सूचना को वे फिर आगे चल कर नय-सूत्र के भाष्य में स्पष्ट करके कहते हैं किशब्दनय की अपेक्षा से प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन चारों का प्रामाण्य स्वीकार किया जाता है। वाचकी के इस पूर्वापर कथन का सार इतना ही from aकता है कि प्रथम प्रकार की तार्किक पद्धति ही जैन दर्शनके अधिक अनुकूल बैठती है और चार भेद वाली तार्किक पद्धति आगम में निर्दिष्ट होने पर भी मूलमं यह दूसरे दर्शन की चीज है; परन्तु जैनदर्शनको अमुक अपेक्षासे उसका स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं। इसी कारण से उन्होंने प्रथम प्रकार की तार्किक पद्धति में जिस तरह पाँच ज्ञान के विभाग को घटाया है उसी तरह दूसरे प्रकार की तार्किक पद्धति में उसे भाष्य नक में भी नहीं घटाया । वाचकश्री उमास्वाति ने प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद वाली तार्किक पद्धति के मुख्यरूपसं जैनदर्शन- सम्मत होने की जो छाप मारी उसे ही आर्चाय कुन्दकुन्द नं स्वीकृत की। उन्होंने भी प्रवचनसारके प्रथम प्रकरण/ * लेखक महोदयका यह निर्णय कुछ ठीक मालूम नहीं होता; क्योंकि श्री कुन्कुन्दाचार्य उमास्ातिसे पहले हो गये हैं । उन्हीं के वशमें उमास्वाति हुए हैं, जिसका उल्लेख बहुत से ग्रंथों, शिला लेखों तथा दिगम्बर पहावलियोंमें पाया जाता है। भौर इस लिये २६५ में तत्त्वार्थसूत्र की तरह पहले दो ज्ञानोंको परोक्ष और शेष तीन ज्ञानोंको प्रत्यक्षरूपसे वर्णित किया है । आगमि - क और तार्किक पद्धतियोंके समन्वय का इतना प्रयत्न होने के बाद भी जिज्ञासुओं की शंका के लिये अवकाश तो था ही। इससे फिर प्रश्न होने लगा कि श्राप (जैनाचार्य) तो मति और श्रुतको परोक्ष कहते हो जब कि जैनेतर दार्शनिक विद्वान मतिज्ञानरूपसे वर्णन किये हुए इंद्रियजन्य ज्ञानको पत्यक्ष कहते हैं, तो इस विषय में सत्य क्या समझना ? क्या आपके कथनानुसार मतिज्ञान यह ठीक परोक्ष ही है या दर्शनान्तर विद्वानों कथनानुसार यह प्रत्यक्ष ही है ?" यह प्रश्न एक तरह पर उमास्वाति के समन्वय मेंसे ही उद्भूत होने वाला है और वह प्रकट रूपसे विकट भी मालूम होता है । परन्तु इसका समाधान वाचकश्री उमास्वाति श्रीम कुन्दकुन्दाचार्य के बाद होता हुआ दिखलाई देता है । इस समाधान के दो प्रयत्न आगमों में नज़र पड़ते हैं- पहला प्रयत्न अनुयोगद्वार में और दूसरा 'नन्दित्र में'। दोनों की रीति जुदी जुदी है। अनुयोगद्वार में प्रत्यक्ष, अनुमान आदि चार प्रमाणों के उल्लेख की भूमिका बाँध कर, उनमेंसे प्रत्यक्ष के दो भाग किये, एक भाग में मतिज्ञान को प्रत्यक्ष रूपसे मान्य रक्खा गया और दूसरे भाग में वा० उमास्वाति द्वारा स्वीकृत अवधि आदि तीन ज्ञानोंका प्रत्यक्षपणा स्वीकार किया गया | जब कि नन्दिसुत्रका समाधान-प्रयत्न दूसरे ही प्रकारका है। उसमें प्रमाणके प्रत्यक्ष तथा परोक्ष ये वो क्षेत्र ले कर और प्रत्यक्ष भेदके दो भाग करके, पहले भाग मे मतिज्ञानको और दूसरे में अवधि आदि तीनों ज्ञानोंको उपलब्ध साहित्य की दृष्टि से इन दाने। पद्धतियों के प्रथम समन्वय का श्रेय कुन्दकुन्दाचार्य को प्राप्त है, ऐसा कहा जा सकता है । --सम्पादक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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