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________________ अनकान्त [वर्ष १, किर ५ अनुयोगद्वार की सदृश प्रत्यक्ष रूपसे बतलाया है मो समझना । भट्टाकलंकदेव अपने 'लघीयस्त्रय' में अधिक तो ठीक, परन्तु फिर आगे चल कर जहाँ परोक्ष भेद स्पष्टताके साथ कहते हैं, कि प्रत्यक्षके मुख्य और का वर्णन करनेका प्रसंग पाता है वहाँ नन्दिकार श्रुत- सांव्यवहारिक ऐसे दो भेद हैं, जिनमें अवधि आदि ज्ञान की साथ मतिज्ञान को भी परोक्षरूपसे वर्णन तीन ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष और इंद्रियजन्य (मति) करना है, जो वर्णन अनुयोगद्वारमें नहीं । अनुयोगद्वार ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष समझना । दोनों और नन्दिसूत्र के कर्ताओं ने एक जैसी ही रीतिसे प्राचार्यों का कथन प्रस्तुत प्रश्नका अन्तिम निराकरण दर्शनान्तग्में और लोक में प्रत्यक्षरूपसे प्रसिद्ध इंद्रिय- करता है । दोनोंके कथन का स्पष्ट आशय संक्षेपमें जन्य (मति) ज्ञान का प्रत्यक्षके एक भाग रूपसे वर्णन इतना ही है कि जैनदर्शन की तात्विक दृष्टिसे अवधि, करके जैन और लोकके बीच का विरोध तो दूर किया मनःपर्याय और केवल ये तीन ज्ञान प्रत्यक्षरूपसे परन्तु उतने मात्रसे इस ममन्वय का विचार बिलकुल मान्य हैं । मति और श्रुत वस्तुतः परोक्ष ही हैं तो भी स्पष्ट और असंदिग्ध नहीं हो पाया । एक तरह तो उल- मति (इंद्रियजन्य) ज्ञान को जो प्रत्यक्ष कहा जाता है टा गोटोला सा हो गया । लोकमान्यताका संग्रह करते वह तात्विक दृष्टिसे नहीं किन्तु लोकव्यवहार की हुए इंद्रियजन्य (मति) ज्ञान को प्रत्यक्षका एक भाग स्थूल दृष्टि से । तात्विक दृष्टिसे तो यह ज्ञान श्रुतज्ञान रूपसे नंदि और अनयोगद्वारमें किये हुए समन्वयके की तरह परोक्ष ही है । इन दोनों प्राचार्यों का यह स्पष्टीअनुसार नंदिकार ने उसे परोक्ष का एक भेदरूप भी करण इतना ज्यादा असंदिग्ध है कि उनके बाद आज वर्णन किया। इसमे फिर शंका होने लगी कि "इंद्रिय- तक लगभग बारह सौ वर्ष के भीतर किमी भी ग्रंथकार जन्य (मति) ज्ञान को श्राप (जैनाचार्य) प्रत्यक्ष कहते को उसमें कुछ भी वृद्धि या परिवर्तन करने की ज़रूरत हो और परोक्ष भी कहते हो; तब क्या आप लौकिक नहीं पड़ी। संग्रह और आगमिक मंग्रह दोनों करने के लिये एक क्षमाश्रमण जिनभद्र के बाद प्रस्तुत विषयसम्बंधमें ही ज्ञानको प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे विरोधीरूपसे स्वी- खास उल्लेखयोग्य श्वेताम्बर आचार्य चार हैं-जिनकारते हो या मंशयशील हो? इसका बिलकुल स्पष्टरूप श्वर सूरि, वादिदेव सूरि आचार्य हेमचन्द औरउपाध्याय से निराकरण हमें उसके बाद के श्वेताम्बर और दिगम्बर यशोविजयजी । भट्टाकलंकदेवके बाद प्रस्तुत विषयमें ग्रंथोंमें देखना चाहिये। उल्लेखयोग्य दिगम्बराचार्यों में माणिक्यनन्दी, विद्या__ उपलब्ध साहित्य को देखते हुए, इसका निराकरण नन्दी, श्रादि मुख्य हैं । दोनों सम्प्रदायोंके इन सभी करने वाले श्वेताम्बर आचार्यों में सबसे पहले जिन- आचार्यों ने अपनी अपनीप्रमाण-मीमांसा-विषयक कृतिभद्रगणी क्षमाश्रमण और दिगम्बर आचार्यों में भट्टा- योंमें कुछ भी फेर-फारकिये बिना एक ही जैसी रीतिसे कलदेव मालूम होते हैं । क्षमाश्रमणजी अपने अकलडुदेवकी की हुई योजना और ज्ञानके 'विशेषावश्यक-भाष्य' में उक्त प्रश्न का निराकरण वर्गीकरण को स्वीकार किया है- इन सबों ने करते हुए कहते हैं कि-इंद्रियजन्य (मति) ज्ञान को प्रत्यक्षके मुख्य और सांव्यवहारिक ऐसे दो भेद किये जो प्रत्यक्ष कहा जाता है उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं। मुख्यमें अवधि आदि तीन शानों को और सांव्य
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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