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चैत्र, वीरनि०सं०२४५६] एच विद्वान के हृदयोद्गार
२६७ वहारिकमें मतिज्ञान को लिया है । परोक्षके स्मृति, जैनवाड्मयमें आगमिक और तार्किक इन दोनों प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और पागम ये पाँच भेद पद्धतियोंके परस्पर समन्वय का प्रश्न किस रीतिसे करके उक्त प्रत्यक्षके सिवाय और सब प्रकारकं ज्ञान उत्पन्न हुआ तथा विकास को प्राप्त हुआ इसका अवकोपरोक्षके पाँच भेदों से किसी न किसी भेदमें समा- लोकन हम संक्षेपमें कर गये हैं। इसका सार यह है विष्ट कर दिया है।
कि ज्ञानके पाँच प्रकारों को प्रत्यक्ष और परोक्ष इन परंतु यहाँ एक महान प्रश्न उत्पन्न होता है, और
भेदोंमें सबसे पहले के वाचक उमास्वातिन तत्त्वार्थ' में वह यह कि-आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने, जो कि ।
: घटाया है और इसके द्वारा यह दो भेद वाली तार्किक जनतार्किकोंमें प्रधान माने जाते हैं, आगमिक और पद्धति जैनदशेनके अधिक अनुकूल है ऐसी अपनी तार्किक पद्धतियोंके परस्पर समन्वय तथा उसके संबंध
PH सम्मति प्रकट की है। वाचकवर्य (उमास्वाति) की इस में उत्पन्न होने वाले प्रश्नोंके प्रतिक्या विचार किया है ?
सम्मतिको ही दिवाकरजीने न्यायावतारमें मान्य रक्खा इसका खुलासा उनकी उपलब्ध कृतियों परसे नहीं
है और उसके द्वारा अपना यह अभिप्राय प्रकट किया मिलना । प्रमाणशास्त्रक खास लेखक इन प्राचार्य की है कि उक्त दो भेद वाली तार्किक पद्धति ही जैनदर्शन प्रतिभा, प्रमाणसम्बंधी इस खास विषय को स्पर्श न कलिय ठाक
के लिये ठीक बैठती है। करं ऐसा होना संभव नहीं। इससे कदाचित् ऐसा सबसे पहले इन शब्दोका साथमें प्रयाग उस वक्त तक होना योग्य जान पड़ता है कि उनकी अनेक नष्ट हुई ठीक मालूम नहीं होता जब तक कि यह सिद्ध न हो जाय कि उमाऋतियों के साथ ही प्रस्तुत विचारस सम्बंध रखने वाली स्वाति कुन्दकुन्दाचार्यसे पहले हुए हैं । शिलालेखों प्रादिम उमाकान भी नाश को प्राप्त हो गई है।
बाति का कुन्दकुन्दके बाद होना पाया जाता है।-सम्पादक
एक विद्वानके हृदयोद्गार
मद्रास प्रान्तीय दक्षिण कनाडा जिलेके मंजेश्वर किरणों को देख कर आपने जो अपने हृदयोद्गार एक नगर निवासी श्रीयुत एम० गोविन्द पै नामके एक संस्कृतपत्र-द्वारा व्यक्त किये हैं वे अनेकान्तके अन्य प्रसिद्ध विद्वान् हैं, जो कि पुरातत्व विषयके प्रेमी होने पाठकों और खाम कर जैनसमाजके विद्वानों तथा श्रीके साथ साथ अच्छे रिसर्च स्कॉलर हैं । आप कनड़ी, मानोंके जानने योग्य हैं। यद्यपि अजैन विद्वानांक संस्कृत तथा अंग्रेजी श्रादि कई भाषाओंके पंडित हैं और कितने ही पत्र तथा विचार अनेकान्तकी गत किरणोंमें जैनग्रंथोंका भी आपने कितना ही अभ्यास किया है। 'लोकमत' शीर्षकके नीचे प्रकट होते रहे हैं और वे मय, अंग्रेजी तथा कनडी आदि भाषाओंके पत्रोंमें आपके 'अनेकान्त' के विषयमें उनकी ऊँची भावना तथा दृष्टि गवेषणापूर्ण लेख अक्सर निकला करते हैं। और और आकांक्षा को व्यक्त करते हुए, प्रकारान्तरमे जैन 'अनेकान्त' के आप प्रेमी पाठक हैं। उसकी चार समाजको उमके कर्तव्यका बोध करानेमें बहुत कुछ