SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म में अहिंसा चैत्र, बीरनि०सं०२४५६] भावादेज कुलिंगो मरेज्ज तज्जोग्गमासेज्ज || हितस तरिणामिचो घोसु हुमो विदेसिदोसमये अर्थात् - जो मनुष्य देख देखके रास्ता चल रहा है उसके पैर उठाने पर अगर कोई जीव पैरके नीचे आ जावे और कुचल कर मर जावे तो उस मनुष्यको उस जीवके मरनेका थोड़ा से भी थोड़ा पाप नहीं लगता । हिंसा का पाप तभी लगता है जब वह यत्नाचार से काम न लेता हो मरदुब जियदुव नीबो भयदाचारस्स णिबिदा हिंसा पदस्स एत्थि बन्धो हिंसामेतेण समिदस्स || अर्थात- जीव चाहे जिये चाहे मरे, परन्तु जो प्रयत्नाचार से काम करेगा उसे अवश्य ही हिंसाका पाप लगेगा। लेकिन जो मनुष्य यत्नाचार से काम कर रहा है उसे प्राणिबध हो जाने पर भी हिंसा का पाप नहीं लगता । आशाधरजी ने भी इसी विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है। लिखा है विष्वर जीवचिते लोके क चरन् कोप्यमोच्यत । भावैकसाधन बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यनाम् ॥ - सागारधर्मामृत | अर्थात्-जब कि लोक, जीवोंसे खचाखच भरा है नत्र यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर ही निर्भग्न होते तो कौन आदमी मोक्ष प्राप्त कर सकता ? जब जैम धर्म की अहिंसा भावोंके ऊपर निर्भर है तब उसे कोई भी समझदार अव्यवहार्य कहने का दुःसाहस नहीं कर सकता। जैनधर्मके समाधिमरण व्रत के ऊपर विचार करनेसे तो साफ मालूम होता है कि मरनेसे ही हिंसा नहीं होती। इस सतेजना व्रतके महत्व और स्वरूप को न समझकर किसी भादमीने एक २७५ पत्र में लिखा था कि जैनी लोग महीनों भूखों रह कर मरनेमें पुण्य समझते हैं। अगर इस भाई ने सल्लेखना का रहस्य समझा होता तो कभी ऐसा न लिखता, और न सल्लेखनाको आत्महत्याका रूप देता । सल्लेखना ऐसी अवस्थाओं में की जाती है उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःमतीकारे। धर्माय तनुविमोचननमाः सम्मेलनामार्याः ॥ समन्तभद्र । अर्थात्- अब कोई उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढापा और रोग ऐसी हालत में पहुँच जायें कि धर्मकी रक्षा करना मुश्किल हो तो धर्मके लिये शरीर छोड़ देना सलेखन। या समाधिमरण है । समाधि ले लेने पर उपर्युक्त आपत्तियोंको दूर कर ने की फिर चेष्टा नहीं की जाती— उपचार वगैरह बन्द करके वह अंतमें अनशन करते करते प्राणत्याग करता है । सम्भव है कि उपचार करनेसे वह कुछ दिन और जी जाता । परंतु जिम कार्यके लिये जीवन है, जब वही नष्ट हो जाता है तब जीवनका मूल्य ही क्या रहता है? यह याद रखना चाहिये कि आत्माका माध्य शांति और सुख है। सुखका साधन है धर्म और धर्मका सा. धन है जीवन | जब जीवन धर्मका बाधक बन गया है तब जीवनको छोड़ कर धर्म की रक्षा करना ही उचित है। हर जगह साध्य और साधन में विरोध होने पर साधन को छोड़ कर साभ्यकी रक्षा करना चाहिये । समाधिमरण में इसी नीतिका पालन किया जाता है। इसी बात को अकलंकदेवने यो स्पष्ट किया है : 66 यथा after: विविधपण्यदानादानसंचयपरस्य गृहविनाशोऽनिष्टः तद्विनाशकारणे चोपस्थिते यथाशक्ति परिहरति दुष्परिहारे प पथवाविनाशो यथा भवनि तथा यतते । एवं
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy