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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ५ ण का रिवाज है उसी तरह उनके यहाँभी पश्चातापकी है कि उसका भावहिंसाके साथ सम्बन्ध है। फिर भी किया' करने का रिवाज है । उस क्रिया जो मंत्र बोने यह बात याद रखना चाहिये कि द्रव्यहिंसाके होने पर जाते हैं उनमें से कुछका भावार्थ इस तरह है:- भावहिंसा अनिवार्य नहीं है। ___धातु-उपधातुके साथ जो मैंने दुर्व्यवहार (अप- अगर द्रव्यहिंसा और भावहिंसाको इस प्रकार राध) किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूँ"।"जमीन अलग न किया गया होता तो जैनधर्मके अनुसार कोई के साथ मैंने जो अपराध किया हो उसका मैं पश्चात्ताप भी अहिंसक न बन सकता और निम्नलिखित शंका करता हूँ" । “पानी अथवा पानीके अन्य भेदोंके साथ खड़ी रहतीजो मैने अपराधकिया हो उसका मैंपश्चाताप करताहूँ"। जले जंतुः स्थले जंतुराकाशे जंतुरेव च । "वृक्ष और वृक्षके पन्य भेदोंके साथ जो मैंने अपराध जंतुमालाकुले लोके कथं भिरहिंसकः ।। किया हो उसका मैं प्रायश्वि करता हूँ" । "महताब, जल में जंतु हैं, स्थल में जंतु हैं और आकाश में माफताब,मलती-अम्निमादि के साथ मैने जोअपराध भी जंत हैं। जब समस्त लोक जंतुओं से भरा हुआ है किया हो उसका मैं पश्चाताप करता हूँ"।
तब कोई भिक्षु (मुनि) अहिंसक कैसे हो सकता है ? पारसियोंका विवेचन जैनधर्मके प्रतिक्रमण-पाठसे इस प्रश्नका उत्तर यों दिया गया है:मिलता जुलता है जो कि पारसीधर्मके ऊपर जैनधर्मके प्रभावका सूचक है ।मतलब यह है किजैनधर्म में अहिंसा - सूक्ष्मा न पतिपीड्यन्ते प्राणिनः स्थलमर्चयः। का बड़ा सूक्ष्म विवेचन किया गया है । एक दिन था पर
ये शक्यास्ते विवज्यन्ते का हिंसा संयतात्मनः ।। जब संसारने इस सूक्ष्म अहिंसाको प्राधर्य और हर्ष सूक्ष्म जीव (जो अदृश्य होते हैं तथा न तो किसी साय ऐसा था और अपनाया था ।
से रुकते हैं और न किसी को रोकते हैं) तो पीडित " यहाँ पर प्रश्न होता है किजव जैनधर्मकी अहिंसा नहीं किये जा सकते, और स्थूल जीवोंमें जिनकी रक्षा इसनी सूक्ष्म है तो उसकापालन कदापि नहीं हो सकता
की जा सकती है उनकी की जाती है। फिर मुनि को हमन्यवहार्य है। इसलिये उसका विवेचन व्यर्थ है। हिंसा का पाप कैसे लग सकता है ?' इससे मालम पसत नमन मा
होता है कि जो मनुष्य जीवोंकी हिंसा करने के भाव बच्चेरूप में किया है कि वह जितना ही उकर नहीं रखता अथवा उनको बचाने के भाव रखता है उतना ही म्यवहार्य भी है।
उसके द्वारा जो व्यहिंसा होती है उसका पाप उसे । जैनधर्म के अनुसार अपने द्वारा किसी प्राणी के मर नहीं लगता है। इसीलिये कहा हैजानेसे या दुःखी हो जानेसे ही हिंसा नहीं होती ।संसार वियोजयति चासुभिर्न च पधेन संयुज्यते । में सर्वत्र जीव पाये जाते है और वे अपने निमित्तसे अर्थात्-प्राणों का वियोग कर देने पर भी हिंसा मरते भी रहते हैं। फिर भी जैनधर्म इसमाणिपातको पाप नहीं लगता । इस बात को शासकारों ने और रिक्षा नहीं कहता । वास्तवमें हिंसाल्प परिणाम ही भी अधिक स्पष्ट करके लिखा हैदिबहिसाको वो सिर्फ इसलिये हिंसा म पाखादम्पिादे हरिषासविदम्स सिग्गमताणे।