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________________ चैत्र, बीर नि०२४५६] जैनधर्म में हिंसा NAAAA जैनधर्म में हिंसा [ लेखक - श्री०सा०रत्न ५० दरबारीलालजी ] जो • जन्म लेता है वह एक न एक दिन मरता अवश्य है। या तो एक प्राणी दूसरे प्राणीको मार डालता है अथवा प्रकृति ही उसका जीवन समाप्त कर देती है। इनमें से प्राणीको प्रकृJenna तिकी अपेक्षा दूसरे प्राणीका डर ज्यादा है। एक प्राणी दूसरे प्राणीके खूनका प्यासा है। इसलिये नीतिवाक्य भी बन गया है - " जीवो जीवस्य जीवनम् " । अर्थात, एक जीव दूसरे जीवके जीवनका आधार है । मनुष्य सबमें श्रेष्ठ प्राणी है । बुद्धिमान होनेसे बलवान् भी है। इसी लिये यह उपर्युक्त नीतिबाक्यका सबसे ज्यादा दुरुपयोग कर सका है। अपने स्वार्थ के लिये वह ऐसी हिंसा भी करता है जो आवश्यक नहीं कही जा सकती । परन्तु यह कार्य प्राणिसमाज और मनुष्यसमाज की शान्ति में बाधक है। इससे मात्मिक उन्नति भी रुक जाती है। इसलिये प्रत्येक धर्म में थोड़े-बहुत रूप में हिंसा के त्याग का उपदेश ----------------- दिया गया है और इसीलिये 'अहिंसा परमो धर्म:' प्रत्येक धर्मका मूल मंत्र बन गया है। लेकिन जैनधर्मने इस मंत्र की जैसी सूक्ष्म व्याख्या की है वह बेजोड़ है। जैन धर्मकी अहिंसा, अहिंसाका चरम रूप है । जैनधर्म के + अहिंसा-तत्वको प्रकाशित करना 'अने कान्त' को खास तौर से इष्ट है। पहली किरण से ही इसका प्रयत्न जारी है। पिछली किरण में 'जैनों की अहिंसा' नाम से एक खास लेख पं० देवकीनन्दनजी का पाठक पढ़ चुके हैं। आज उनकी सेवामें समाज के एक दूसरे लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् की कृति प्रस्तुत की जाती है। यह लेख कुछ समय पहले 'जैनजगन्' में प्रकट हुआ था और वही लेख है जिस पर महात्मा गांधी जी ने लिखा था"लेख पढ़कर मुझको आनन्द हुआ। उसमें बहोत सी बातें हैं जिनसे मैं मह-सम्पादक मत हूँ” mindans २०० अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े मकोड़े आदि के अतिरिक पृथ्वी, जल, अग्नि, बाबु और वनस्पतिमें भी जीव है । मिट्टीके ढेले में कीड़े आदि जीब तो हैं ही, परन्तु मिट्टी का ठेला स्वयं पृथ्वीकाविण जीवों के शरीर का पिंड है। इसी तरह जलबिन्दु में यन्त्रों के द्वारा दिखने वाले अनेक जीवों के अतिरिक्त वह स्वयं जलकारिक जीवों के शरीरका पिंड है। यही बात अग्निकाय आदि के विषय में भी समझनी चाहिये । ----- इस प्रकारका कुछ विवेचन पारसियोंकी धर्मपुस्तक 'मापस्वा' में भी मिलता है। जैसे हमारे यहाँ प्रि
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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