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१०.
अनेकान्त
वर्ष १, किरण मानों ऐमा मालम होता था कि वह अब हमरत भरी श्रद्धालु जैनी नहीं रहे और दूसरे प्रान्तोंके जैनियोंमें निगाहोंसे देख रहा है और पुकार पुकार कर कह भी धर्मकी सच्ची लगन अथवा अपने देवके प्रति रहा है कि, मेरे साथी चले गये! मेरे पोषक चले गये!! मच्ची भक्ति नहीं पाई जाती ? यदि देवगढ़में और उसके मेरा कोई प्रेमी नहीं रहा !!! मैं कब तक और अकेला आस पास आज भी जैनियोंकी पहले जैसी बस्तीहोती खड़ा रहूँगा किमके आधार पर बड़ा रहूँगा? खड़ा और उनका प्रतापमर्य चमकता होता तो इन मंदिररहकर करूंगा भी क्या ? मैं भी अब धराशायी होना मूर्तियोंको कदापि ये दिन देखने न पड़ने । और इस चाहता हूँ !!! इम तरह इन करुण दृश्यों तथा अपम्ग- लिये जिन भोले भाईयोंका यह खयाल है कि अधिक नित पूजा-स्थानांको देख कर और अतीत गौरवका जैनियोंमे या जैनियोंकी संख्यावृद्धि करनेमे क्या लाभ? म्मरण करके हृदयमें बार बार दुःग्बकी लहरें उठती थोड़े ही जैनी काफ़ी हैं, उन्हें देवगढ़की इस घटनाम थीं-रांना आता था-और उम दुःश्वमे भरे हुए परा पग सबक सीखना चाहिये और स्वामी समन्तभद्र हृदयको लेकर ही मैं पर्वतमे नीचे उतरा था। के इम महत्वपूर्ण वाक्यको मदा ध्यानमें रखना
समझमें नहीं आता जिनकी प्राचीन तथा उत्तम चाहिये कि 'नधर्मोधार्मिकैर्विना'-अर्थात, धार्मिकोंक देवमूर्तियोंकी यो अवज्ञा होरही हो वे नई नई मूर्तियोंका बिना धर्मकी सत्ता नहीं, वह स्थिर नहीं रह सकता, निर्माण क्या समझ कर कर रहे हैं और उसके द्वारा धार्मिक पुरुष ही उसके एक आधार होते हैं, और कौनसा पण्य उपार्जन करते हैं। क्या बिना जरूरतभी इसलिये धर्मकी स्थिति बनाये रखने अथवा उसकी इन नई नई मतियोंका निर्माण प्राचीन शास्त्र-विहित वृद्धि करने के लिये धार्मिक पुरुषोंके पैदा करनेकी और मूर्तियोकी बलि देकर-उनकी आरसे उपेक्षा धारण उनकी उत्तरोत्तर संख्या बढ़ानेकी वास ज़रूरत है। करके नहीं हो रहा है । यदि ऐमा नहीं तो पहले इन माथ ही, उन्हें यह भी याद रग्बना चाहिये कि जैनियों दुर्दशाग्रस्त मंदिर-मतियोंका उद्धार क्यों नहीं किया की संख्या वृद्धिका यदि कोई ममुचित प्रयत्न नहीं किया जाता ? जीर्णोद्धारका पुण्य ना ननन निर्माणसे अधिक गया तो जैनियोंके दूसरे मंदिर-मूर्तियोंकी भी निकट बतलाया गया है। फिर उसकी तरफसे इतनी उपेक्षा भविष्यमें वही दुर्दशा होनेवाली है जो देवगढ़के मंदिरक्यों ? क्या महज़ धर्मका ढौंग बनाने, रूढिका पालन मूर्तियोंकी हुई है और इसलिये उसके लिये उन्हें अभी करने या अपने आस पासकी जनतामें वाहवाही लूटने से सावधान हो जाना चाहिये और सर्वत्र जैन धर्मक के लिये ही यह मय कुछ किया जाता है ? अथवा प्रचारादि-द्वारा उनके रक्षक पैदा करने चाहियें । ऐसी ही अवज्ञा तथा दुर्दशाके लिये ही ये नई नई यदि दुर्दैवसे देवगढ़ जैनियोंसे शून्य हो भी गया मूर्तियाँ बनाई जाती हैं ? यदि यह सब कुछ नहीं है तो था नो भी यदि आसपासके जैनियोंकी-बुन्देलखण्डी फिर इतने कालसे देवगढ़की ये भव्य मूर्तियाँ क्यों विपद् भाइयोंकी-अथवादूमरेप्रान्तके श्रावकोंकी धर्ममें सच्ची प्रस्त हो रही हैं ? क्या इनकी विपद्का यह मुख्य प्रीति-सच्ची लगन-अपने देवके प्रति सच्ची भक्ति और कारण नहीं है कि देवगढ़में जैनियोंकी बस्ती नहीं रही, अपने कर्तव्यपालनकी सची रुचि बनी रहती और उसके पास पासके नगर-ग्रामोंमें अच्छे ममर्थ तथा उन्हें अपने घर पर ही नया मंदिर बनवा कर, नई