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देवगढ़
पोष, वार नि०सं०२४५६]
सम्पादकीय नोट- मूर्तियों के ऊपर गिरता है, बहुतसी मूर्तियों पर काई जम मैंने खद ८नवम्बर सन् १९२५को इस पवित्र क्षेत्र गई है, उनके कोई कोई अंग फट गये हैं अथवा विरूप देवगढ़के दर्शन किये हैं परन्तु दर्शन करके इतनी प्रसन्नता हो गये हैं और मंदिरमें हजारों चमगादड़ फिरन हैं नहीं हुई जितनी कि हृदयमें वेदना उत्पन्न हुई। प्रसन्नता जिनके मल-मूत्रकी दुर्गधकं मारे वहाँ खड़ा नहीं हुआ तो केवल इतनी ही थी कि मंदिरोंक साथ मूर्तियाँ बड़ी जाता, तो यह मब दृश्य देखते देखत हृदय भर पाता ही भव्य, मनोहर तथा दर्शनीय जान पड़ती थीं-ऐम था-धैर्य त्याग देता था-श्रांख से अश्रुधारा बहन खर पाषाणकी इतनी सुन्दर सुडौल और प्रसन्नवदन लगती थी, उसे बार बार रूमालसे पोंछना पड़ता था मृतियाँ अन्यत्र बहुत ही कम दग्वनमें आई थीं और और रह रह कर यह ग्वयाल उत्पन्न होता था कि क्या उन्हें देखकर अपने अतीत गोग्वका-अपने अभ्यदय जैनममाज जीवित है ? क्या जैनी जिन्दा हैं ? क्या ये का-तथा अपने शिल्पचातुर्यका म्मरण हो पाता था। मंदिर-मृतियाँ उसी जैन जाति की हैं जो भारतवर्ष में परन्तु मंदिर-मृतियोंकी वर्तमान दुर्दशाको देखकर हृदय एक धनाढथ जाति समझो जाती है ? अथवा जिसके टुक टुक हुआ जाता था-उनकी सुन्दरता जितनी हाथमें देशका एक चौथाई व्यापार बतलाया जाता है? अधिक थी उनकी दुर्दशा उतना ही ज्यादा कष्ट देती और क्या जैनियों में अपने पूर्वजोंका गौरव, अपने धर्म थी । जब मैं देखता था कि एक मंदिग्के पास दृमरा का प्रेम अथवा अपना कुछ स्वाभिमान अवशिष्ट है ? मंदिर धराशायी हुश्रा पड़ा है, उसकी एक मूर्तिकी भजा उत्तर 'हाँ' मैं कुछभी नहीं बनता था; और कभी कभी टूट गई है, दृमरीकी टाँग अलग हुई पड़ी है, तीसरीके नोएमा मालम होने लगता था मानों मूर्तियाँ कह मस्तकका ही पता नहीं है,सहीसलामत बची हुई मूर्ति- रही हैं कि, यदि तुम्हारे अंदर दया है और तुमम याँ भी कुछ अस्त व्यस्त रूपसे खुले मैदान में पड़ी हुई और कुछ नहीं हो सकता तो हमें किसी अजायबघग्म पशुओं आदिके आघात सह रही हैं, मंदिरका खम्भा ही पहुँचा दो, वहाँ हम बहुनाको नित्य दर्शन दिया कहीं तो शिखरका पत्थर कहीं पड़ा है, और उन खंडहरों करेंगी-उनके दर्शनकी चीज़ बनेंगी-बहुतमे गुणपर होकर जाना पड़ताहै;जो मंदिर अभीतक धराशाया ग्राहकोंकी प्रेमांजलि नथा भक्तिपुष्पांजलि ग्रहण किया नहीं हुए उनके आँगनोमें और उनकी छतों आदि पर करेंगी। और यदि यह भी कुछ नहीं हो सकेगा तो गजों लम्बे घास खड़े हैं, खेर-करोंदी आदिके वृक्ष भी कमस कम इम आपत्तिसं ना बच जायंगी-वहाँ छतोंतक पर खड़हुए अपनी निरंकुशता अथवा अपना सुरक्षित तो रहेंगी, वर्षाका पानी तो हमारं ऊपर नहीं एकाधिपत्य प्रकट कर रहे हैं, घासकी मोटी मोटी जड़ें टपका करंगा, चमगादड़ तो हमारे ऊपर मल-मूत्र इधर उधर फेल कर अपनी धृष्टताका परिचय दे रही नहीं करेंगे, पशु तो हमसं आकर नहीं खसा करेंगे और है, एक मंदिरसे दूसरं मंदिरको जानके लिय राम्ता कभी कोई जंगली आदमी तो हमारे मेसे किसीके ऊपर साफ नहीं, मंदिरोंके चारों तरफ जंगल ही जंगल हा खुरपे दाँती नहीं पनाएगा। उधर बड़े मंदिरके उम गया है बेहद घास तथा झाडझंखाड़ खड़े हैं मंदिरोंकी अनुपम तोरण द्वार पर जब दृष्टि पड़ती थी जो अपने प्रायः सारी छतें टपकती हैं, वर्षाका बहुतमा जल माथी मकानोंसे अलग होकर अकेला खड़ा हुआ है ना