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मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] अनेकान्तबादकी मर्यादा
३३ नहीं है । यही एक बात यह समझनेके लिये पर्याप्त के विशकलित मंतव्योंका समन्वय है। प्रत्येक फलित है कि सब क्षेत्रोंको व्याप्त करनेकी ताकत रखनेवाले वादकी सूक्ष्म चर्चा और उसके इतिहासके लिये यहाँ अनेकान्तका प्रथम आविर्भाव किस क्षेत्रमें हश्रा और स्थान नहीं है और न उनना अवकाश ही है तथापि हजारों वर्षों के बाद तक उसकी चर्वा किस क्षेत्र तक इतना कह देना जरूरी है कि अनेकान्तदृष्टि ही महापरिमित रही ?
वीरकी मूल दृष्टि है और वही स्वतन्त्रदृष्टि है-नयवाद भारतीय दर्शनोंमें, जैनदर्शनके अतिरिक्त, उस तथा सप्तभंगीवाद आदि उस दृष्टिके ऐतिहासिक समय जो दर्शन अतिप्रसिद्ध थे और पीछसे भी जो परिस्थिति अनुसारी प्रासंगिक फलमात्र हैं । अतएव अति सिद्ध हुए उनमें वैशेषिक, न्याय, सांख्य, औप- नय तथा सप्तभंगी आदि वादोंका स्वरूप तथा उनके निषद्-वेदान्त, बौद्ध और शाब्दिक ये ही दर्शन मुख्य उदाहरण बदले भी जा सकते हैं पर अनेकान्तदृष्टिका हैं। न प्रसिद्ध दर्शनों को पूर्ण सत्य माननेमें तात्त्विक स्वरूप तो एक ही प्रकारका रह सकता है-चाहे उस
और व्यावहारिक दोनां आपत्तियाँ थीं। उन्हें बिलकुल के उदाहरण बदल जायें । असत्य कह देनमें सत्यका घात था और उनके बीचमें रह कर उन्हीं में से सत्यगवेषणका मार्ग सरलरूपमें
अनेकान्नदृष्टिका असर लोगोंके सामने प्रदर्शित करना था। इसलिए हम उप- जब दूसरे विद्वानोंने अनेकान्तदृष्टिको तत्त्वरूपमें
समग्र जैन वाङ्मयमें नयवादकं भेद प्रभेद और ग्रहण करनेकी जगह सांप्रदायिक वादरूपमें ग्रहण उनके उदाहरण उक्त दर्शनोंक रूपमें तथा उनकी विक- किया तब उसके ऊपर चारों ओरसे आक्षेपोंके प्रहार सित शाखाओंके रूपमें ही पाते हैं । विवारकी जितनी होने लगे। बादरायण जैसे मत्रकारोंने उसके खंडनके पद्धतियाँ उस समय मौजूद थीं उनका समन्वय करनं लिये सूत्र रच डाले और उन सत्रोंक भाष्यकारोंने उसी का आदेश अनकान्नानि किया और उसमेंसे नय- विषयमें अपने भाष्योंकी रचनाएँ की । वसुबन्धु, वाद फलित हुआ जिससे कि दार्शनिक मारामारी कम दिग्नाग, धर्मकीति और शांतरक्षित जैसे बड़े बड़े हा पर दमरी तरफ एक एक वाक्य पर अधेर्य और प्रभावशाली बौद्ध विद्वानोंने भी अनेकान्तवादकी परी नासमझीकं कारण पंडितगण लड़ा करते थे । एक खबर ली। इधरसे जैन विचारक विद्वानोंने भी उनका पंडित आत्मा या किसी दूसरी चीजको नित्य कहता मामना किया । इस प्रचंड मंघर्षका अनिवार्य परिणाम तो दूसरा उसके सामने खड़ा होकर यह कहता कि यह पाया कि कए ओरसे अनेकान्तदृष्टिका तर्कबद्ध वह तो अनित्य है--नित्य नहीं। इसी तरह फिर पहला विकाम हुआ और दूसरी ओरस उसका प्रभाव दूमर पडिन दूसरेके विरुद्ध बोल उठना था। सिर्फ नित्यत्वक विरोधी सांप्रदायिक विद्वानों पर भी पड़ा । दक्षिण विषयमें ही नहीं किन्तु प्रत्येक अंरामें यह झाड़ा जहाँ हिन्दुस्तानमें प्रचंड दिगम्बराचार्यों और प्रकाण्ड तहाँ वादविवादमें होता ही रहता था । यह स्थिति मीमांसक तथा वेदान्त विद्वानांके बीच जो शास्त्रार्थकी देख कर अनेकान्तदृष्टिवाले तत्कालीन प्राचार्यों ने उस कुश्ती हुई उससे अंतमें अनेकान्तदष्टिका ही असर झगड़ेका अन्त अनेकान्तदृष्टिके द्वारा करना चाहा अधिक फैला । यहाँ तक कि रामानुज जैसे बिलकुल
और उस प्रयत्नके परिणामस्वरूप 'सप्तभंगीवाद' जैनत्वविरोधी प्रखर प्राचार्यने शंकराचार्यके मायाफलित हुआ । अनेकान्तदृष्टिकं प्रथम फलस्वरूप नय- वादके विरुद्ध अपना मत स्थापित करते समय आश्रय वादमें दर्शनोंको स्थान मिला है और दूमरे फलस्वरूप तो स्वमान्य उपनिषदोंका लिया पर उनमेंसे विशिष्टासप्तभंगीवादमें किसी एक ही वस्तु के विषयमें प्रचलित द्वैतका निरूपण करत समय अनेकान्तदृष्टि का उपयोग विरोधी कथनोंको या विचारोंको स्थान मिला है। पहले किया; अथवा यों कहिये कि रामानुजने अपने ढंगसे वादमें समूचे सब दर्शन संगृहीत हैं और दूसरेमें दर्शन अनेकान्तदृष्टिको विशिष्टाद्वैनकी घटनामें परिणत