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________________ + मागशिर, वीरनि० सं० २४५६] महाकवि रन्न ततच्छायारुणित-तरुणपारिजात-पल्लवायमानपा- प्रशान्तान्तरंग प्रभाभास्वरांग । दपल्लव, पन्लवित-कुसुमितानल्पकल्पलतायमान प्रसिद्धाभिधान प्रमोक्षप्रधान ।। कल्पेश्वरमाणेश्वरिसमुल्ल सितकरतल पन्लव प्रणष्टप्रमाद प्रकृष्टप्रमोद । नखमयुखरुचिर-प्रचुर-काश्मीरांगराग द्विगुणी- प्रधृष्यद्गभस्ते नमस्ते नमस्ते ।। कृतकनककमनीयकाय कान्तिभ्रमद् भ्रमर कुलविनील कुटिल सञ्चलत्कुन्तल कलाप लगदुग्धी इस तरह महाकवि रनका यह संक्षिप्त परिचय दविन्दुसन्दोहसन्दिग्धमूत्र भूषणव्यक्त मुक्ता- है। दूसरे इतर विद्वानोंने इस कविरत्नके विषयमें जो जालपकरकरकमल मुकुलालंकृत रुन्द्रललाट- अपने उद्गार प्रकट किये हैं उन्हें इस छोटेसे लेखमें पट्ट, द्वात्रिंशदिन्द्रमणिमयकिरीटकोटिघट्टितपाद बतलाना अशक्य है, तो भी एक + जैनेतर विद्वानके पीठ, पीठीकृतमन्दराचलशिखर शेखरीभततिल विस्तृत लेखका कुछ अंश यहाँ दे देना उचित समकायमान महनीय महिमादय, महिमोदयाद्भासि झता हू:भगवजिनेन्द्रवन्दवन्दारक, श्रीमदजितभट्टारक- "कर्णाटक भापारमणीका सौन्दर्य इस रन रत्नस जिन नमस्तं नमस्ते नमस्ते ।" ही द्विगुणित हुआ है, यह कोई अतिशयोक्ति नहीं । इसी तरह ज्ञानकल्याणकं समय भगवानकं म- इस रत्नकी प्रभा कर्णाटक महापामादका मांगलिक म्मुख इन्द्रकं मुखसे गीर्वाण भाषामें जो पद्य म्तात्र दीप है । यही कर्णाटकियोंका सौभाग्य रत्न है" *। कराया गया है उसके कुछ वाक्य इस प्रकार हैं- इस नरहम जैनतर विद्वान जैनसाहित्यको अपना " जय जय जिनाधीश कनकपनसंकाश । रहे हैं, धीरे धीरे उमे प्रकाशित करा रहे हैं-शीघ्र जय जय जगत्तिलक कृतभन्य जनपलक ॥ ही के. वमगज० एम० ए०, एल० एल० बी० महीजय जय गणाभरण सकलजनहितकरण । दय मंगरसकविकृत जैन हरिवंशपराणको प्रकाशिन जय जय तमोविलय विमलतेजोनिलय ॥ कगने वाले हैं। ऐसी हालनमें सम्पूर्ण भारतीय जैनि यांका कर्तन्य है कि वे उम भापाकं लिहाजमे नहीं तो जय जय मनोजहर सद्धर्मतीर्थकर । धार्मिक वात्मल्यम ही उन ग्रंथोंके उद्धारमें सहायक जय जय जनानन्द केवलोकुरकन्द।। जय जय जनाधार निर्दलितसंसार । x यहाँ पर उन अंजन विद्वान तथा उनक लग्वादिकका नाम भीद दिया जाता तो और भी अच्छा रहना। -सपादक जयोत्तुंगसिंहासनासीनमृत । + 'कणटक कविचरित' के लेखक नरसिंहाचार्य जीन इसाकविकी प्रशंसामें लिखा है-पन्न कविक ग्रन्थ मम और प्रौढ रचना युक्त जगचक्रविख्याततीर्थेशकीर्ते ॥ है। उसकी पद सामग्री, ग्चना शक्ति मौर बन्ध गौग्व-पाथर्यजय द्रोहमोहाहितोत्पातकतो। जनक है । पद्यप्रवाह रूप और हृदयग्राही हैं । साहमभीमविजयका महाघोरकारिसंहारहेतो ॥ पढ़ना शुरू करके फिर छोडनेको जी नहीं चाहता है" (देखो, 'कर्णाटक जैनकविर)
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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