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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण १
बनें । उन प्रन्थोंमें क्या क्या भरा है इस बातको यदि दिन रात अनावश्यक कार्योंके सम्पादन तथा आपसमें हिन्दी आदि प्रचलित भाषा भाषियोंके सम्मुख अनु- लड़ने झगड़नेमें ही खर्च होती रहती है और दूसरे उपवाद करा कर रक्खा जाय तो बहुत कुछ लाभ तथा योगी तथा सार कार्यों के लिये अवशिष्ट ही नहीं रहती। गौरव होगा। साथ ही, कर्णाटक भाषाकी उन्नति भी
__ अथवा हमने समझ लिया है कि जिनवाणी माताको होगी । जब हमें दुनियाँ भरमें जैनधर्मको फैलाना है तो खाली हाथ जोड़न अथवा चावलके दाने चढानेसे तो दुनियाकी उन भापानीको भी अपनाना होगा। भी काम चल जायगा और वह हम पर प्रसन्न हो परन्तु इतना ठेका लेनेकी बात तो दूर है, प्रथम तो हमारे जायगी; फिर कौन उसके लिये इतनीमराजपच्ची करे !! पृज्य पूर्वज जिस कल्पलताको बढ़ा कर रक्ख गये हैं प्राचीन कीर्तियाँ यदि नष्ट होती हैं तो होने दो ! उनसे उसको तो सींचलें फिर दुनियाभरकी फ़िकर करनेके हमारा बनता और बिगड़ता क्या है ? हमारी इस कहीं योग्य हो सकेंगे।
परिणति, समझ और लापर्वाही का ही यह परिणाम है जो बेकद्रों ( श्रगुणज्ञों) के हाथ पड़े हुए रत्नकी
तरह जैन साहित्यकी मिट्टी खराव हो रही है । और संपादकीय नोट-इसमें संदेह नहीं कि कर्णाटक वह दिन पर दिन नष्ट होता चला जाता है । जिनवाणी भाषाका साहित्य एक प्रोढ साहित्य है और वह प्रायः के प्रति जैनियोंके कर्तव्यका अजैन लोग पालन करें जैनग्रंथोंसे ही परिपुष्ट है। १२वीं शताब्दीके पर्वाध यह जैनियों और खास कर जिनवाणी कभक्त कहलान तकका कनडीसाहित्य तो अकेले जैन विद्वानोंकी वालोंके लिय बड़े ही कलंक तथा लज्जाका विपय है । ही रचनाका प्रतिफल है और उसके बाद भी उसमें कई यदि जैनियोंमें अपने कर्तव्यका कुछ भी बोध, कुछ शताब्दी तक जैन लेखकोंको प्रधानता रही है, ऐसा भी स्वाभिमान और अपने पूर्वजोंके प्रति कुछ भी सच्चा पुरातत्त्वज्ञोंका मत है । इस साहित्यमें अन्य बातोंक भक्तिभाव अवशिष्ट है तो उन्हें अपने प्राचीन साहित्य सिवाय जैनियोंके इतिहासकी प्रचुर सामग्री पाई जाती के उद्धारका कार्य शीघ्र ही अपने हाथमें लेना चाहिये । है। और इसलिये इसका उद्धार करना जैनियोंका कनडी भाषाके उत्तमोत्तम ग्रन्थोंका जरूर हिन्दीमें खास कर्तव्य है । परन्तु यह देख कर बड़ा दुःख और अनुवाद होना चाहिये और इस भाषाके ग्रंथोंमें इतिग्वेद होता है कि जैन जनता अपने इस पवित्र कर्तव्य हासकीजो कुछ भी सामग्री संनिहित है उस सबका एकत्र से बिलकुल ही विमुख हो रही है ! उसे यह भी पता संग्रह किया जाना चाहिये । यदि कोई धनाढय अथवा नहीं कि कर्णाटक भापामें-और इसी तरह तामिल विद्वान भाई इस उपयोगी कामके लिये अपनी सेवाएँ भाषामें भी-कौन कौन जैन ग्रंथ हैं और वे किन अर्पण करना चाहें तो समन्तभद्राश्रम उन्हें सादर किन आचार्यों अथवा विद्वानोंके बनाए हुए हैं। फिर स्वीकार करके कार्यकी योजना-द्वारा उनका सदुपयोग उनमें क्या वर्णित है और वे कितना महत्व रखते हैं करनेके लिये तय्यार है। इसका पता लगानेकी तो बात ही निराली है । और वह पता लगाया भी कैसे जा सकता है जब कि हमारी शक्ति