________________
मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६)
सुभाषित मणियों
MAN
2035
सुभाषित मणियाँ
9434
""
VE:
1
909
:....
.
:..'
प्राकृत
जो शरणागतोंको शान्तिके विधाता हैं उन शान्त्यात्मा
. जिनेन्द्रभगवान की मैं शरणमें प्राप्त होता हूँ। मेरे जियभयजियउवसग्गे जियइंदियपरीसहे जियकसाए।
' सांसारिक दुःख, क्लेश और भय सब शान्त हो जायँ ।' जियरायदोसमोहे जियसुहदुक्खे णमंसामि ॥
(इसमें सुखशांति क्या वस्तु है ? कैसे प्राप्त होती है ! -कुन्दकुन्दाचार्य। प्राप्त करने वाला उमे दसरोंको कैसे दे सकता है ? और उपासना 'जिन्होंने भयों को जीत लिया, उपसों को जीत का मूल क्या है ? इन सब बातोंको सूत्ररूपमें बड़ी ही युक्तिसे सूचित लिया, इन्द्रियों को जीत लिया, परीषहोंको जीत लिया, किया है, और इसमे यह पद्य बड़े महत्वका है। कषायों को जीत लिया, राग-द्वेष-मोह पर विजय प्राप्त किया, सुख और दुखको जीत लिया उन सबके आगेमैं ।
___ बन्धुर्न नः स भगवान रिपवोऽपि नान्ये, सिर झुकाता हूँ'-ऐसे ही योगिजन नमस्कारके योग्य हैं। सामान दृष्टवर एकतमोऽपि चैषाम् । जेण रागा विरज्जेज जेण सेयसि रज्जदि । श्रुत्वा वचः सुचरितं च पृथग विशेषं, जेण मेत्ती पभावेज्न तएणाणंजिणसासणे । वीरं गणातिशयलोलतया श्रिताःस्मः ।। -वट्टकराचार्य।।
-हरिभद्रसूरि । 'जिसके कारण राग-द्वेप-काम-क्रोधादिकसे विरक्तता भगवान महावीर हमारा कोई सगा भाई नहीं प्राप्त हो, जिसके प्रतापसे यह जीव अपने कल्याणके मार्ग और न दूसरे कपिल गौतमबुद्धादिक ऋपि हमारे कोई में लग जाय और जिसके प्रभावमे सर्व प्राणियों में शत्रु ही हैं हमनं तो इनमेंसे किसी एकको भी साक्षान इसका मैत्रीभाव व्याप्त हो जाय वही ज्ञान जिनशासन- देखा तक नहीं है। हाँ, इनके पृथक् पृथक् वचनविशेष का मान्य अथवा उसके द्वारा अभिनंदनीय है।' नथा चरितविशेपको जो सुना है तो उससे महावीरमें "णो लोगस्सेसणं चरे।" गुणातिशय पाया गया, और उस गुणातिशय पर -आचारांग सत्र।
मुग्ध होकर अथवा उसकी प्राप्तिकी उत्कट इच्छासे ही 'लोकैपणका अनुसरण करना-लोगोंकी इच्छानसार हमने महावीरका आश्रय लिया है।' वर्तना, दुनियाकी देखादेखी चलना अथवा लोक- (इसमें माध्यस्थ्य भाव और परीक्षाप्रधानता का अच्छा प्रदप्रवाहमें बहना-नहीं चाहिये ।'
भन किया गया है।) संस्कृत--
"स्याद्वादो वर्तते यस्मिन पक्षपातो न विद्यते । स्वदोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः नास्त्यन्यपीडन किंचित जैनधर्मः स उच्यते ॥" शान्तेर्विधाता शरणं गतानां । 'जिसमें सर्वत्र स्याद्वाद का वर्तन- अनेकान्त का भूयाद्भव-क्लेश- भयोपशान्त्य
व्यवहार--होता है, पक्षपात नहीं पाया जाता और न
दूसरोंक पीडनका-हिंसाका ही कुछ विधान है उस शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरएयः ॥
जैनधर्म कहते हैं।' -स्वामिसमन्तभद्र। 'जिन्होंने अपने राग-द्वेष-काम-क्रोधादि दोषोंकोशान्त
" नाशाम्बरत्वं न सिताम्बरन्वं करके अपनी आत्मामें शान्ति प्राप्त की है और इसलिए न तर्फवादे न च तत्ववाद।