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अनेकान्त
ठोकर होगी, जो तुम्हारी आँखें खोल देगी, ऐसे जैसे आत्मा के झरोखे खोल दिये हों। यह सुनूँगा, दुर्भाग्यको भी सौभाग्य मानूँगा । — जाओ । "
तो इस
कुमारने चरण छुए और चला गया ।
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दूर-दूर तक एक डाकूका आतंक फैल गया । धनिक दहशतसे घबराये रहते थे। लोहे के सीखचों और संगीनोंके पहरेमें भी बंद उनकी सम्पत्ति सुरक्षित है, पल भर भी उनको इस आश्वासन का चैन नहीं मिलता था। शंका, आशंका से सदा उन्निद्र सशंक, व्यथित और सतर्क रहते थे ।
उस डाकूके दलोंके संघटनकी जड़में क्या जादू था, समझ नहीं पड़ता । वह संघटन अजेय, अमोघ और अभेद्य था । भेद उसमें जरा कोई न डाल सका, और बिना भेद डाले जीतनेकी संभावना हो ही कैसे
बनारस हिन्द यूनिवर्सिटी
ता०८-१०-२६
सकती थी ।
किंतु फिर भी डाकू और डाकूका दल व्यर्थ हिंसा से यथाशक्य बचता है - यह बात सर्व परिचित थी ।
अब कुछ दिनोंसे डाकूका डेरा राजगृहीमें जमा है । राजगृही जन-धन-धान्य- सम्पन्न सुंदर सुविशाल नगरी है | मनुष्य-कृत प्रह-निर्माण और पुर-निर्माण की दृष्टि में उतनी ही सुंदर है जितनी प्रकृतिगत नैसर्गिक छटाके लिहाज से । चारों ओर पाँच पहाड़ियाँ हैं, जो परिक्रमा देती हुई नगरीको कोटकी तरह घेरे हैं। यह पार्वत्य माला नगरकी रक्षा प्राचीरका काम भी देती है, और अब डाकू सैन्यकी रक्षा दुर्गका भी ।
महामना पूज्य मालवीयजी का शुभ सन्देश
[ वर्ष १, किरण १
यह डाकू सर्दार और कोई नहीं, कुमार विद्युच्चर है । राजगृही की सुप्रसिद्ध वारवनिता वसंततिलका के यहाँ विद्युश्वरका ज्यादा आना जाना और रहना होता है । ( अगले अंक में समाप्य)
" आप के श्राश्रम के उद्देश्य ऊँचे हैं और उन के साथ मेरी सहानुभूति है । आपका एक मासिक पत्र निकालने का विचार भी सराहनीय है । मैं 'हृदय से चाहता हूँ कि उस पत्रके द्वारा आप अपने आश्रमके उद्देश्योंको पूरा कर सकें और ऐसे सच्चे सेवक उत्पन्न करें जो वीर के उपासक, वीरगुणविशिष्ट और लोकसेवार्थ दीक्षित हों तथा महावीर स्वामी तथा अन्य जैनश्राचायों के सत्-उपदेशोंका ज्ञान प्राप्त कर धर्ममें दृढ सदाचारवान, देशभक्त हों ।"
आपका हितचिन्तक
) मदनमोहन मालवीय