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________________ मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६] विधुवर कुमार, तुम्हारी मति विभ्रममें पड़ गई है । ऐश्वर्य मुकुट टूटे तो सब टूट जायें, और सिंहासन न रहे तो ही सो ध्येय नहीं है दुनियाँ में औचित्य भी तो कुछ क्या कुछ रहे ही नहीं ? बताइये फिर क्यों आवश्यक वस्तु है । हेयोपादेय भी कुछ होता है। लोगोंका धन है ? । अपहरण करना, उन पर आतंककी तरह छाया रहना, “कुमार, बतानेसे कुछ न होगा। तुम्हें अभी अपने उनको चूस कर खुद फूलना - धिक् , कुमार, तुम्हें नये-बन उद्देश्यका बुखार आरहा है। धीरे धीरे तुम ही लज्जा नहीं आती ?" खुद समझोगे।" ___ "पिताजी, हेयोपादेय हो भी तो भी आपके कर्तव्य “समझेगा तो समझंगा । किंतु अभी तो निश्चित और अपने मार्गमें उस दृष्टिसे कुछ अंतर नहीं जान हैआप नहीं समझा सकते । और खुद समझनेकी बात पडता। आपकी क्या इतनी एकांत निश्चितता, इतना पर निर्भर रहकर चपपड़ जाना पक्ष-प्रबलताका लक्षण विपल सख सम्पत्ति-सम्मान और अधिकार-ऐश्वयं नही?" का इतना ढेर, क्या दूसरेके भागको बिना छीन बन सकता है ? आप क्या समझते हैं, आप कुछ दूसरेका “न हो । मैं मानता हूँ, अनुभव आवेशसे प्रबल अपहरण नहीं करते ? आपका 'राजापन' क्या और नहीं होता; और सत्य सदा ही भ्रम से कम आकर्षक मबक 'प्रजापन' पर ही स्थापित नहीं है ? आपकी ___ और इसलिये कम जटिल होता है। सत्य शब्दोंसे प्रभुता औरोंकी गुलामी पर ही नहीं खड़ी ? आपकी बँधता ही नहीं, जब कि सत्य पर उलझन बुनती हुई संपन्नता औरोंकी गरीबी पर, सुख-दुःख पर, आपका भ्राँति शब्दबहुल और तर्क-तंतु-गुम्फित होती है।" विलास उनकी रोटीकी चीख पर, काप उनके टैक्स "पिताजी, मुझे तो सत्य भ्रांति, और तर्क सत्य पर, और आपका सब कुछ क्या उनकं सब कुछका दाखता है। तर्कस निरपेक्ष भी सत्य कोई हो सकता कुचल कर, उस पर ही नहीं खड़ा लहलहा रहा? फिर है,यह उपहास्य है।" मैं उस मार्ग पर चलता है तो क्या हर्ज है। हाँ. अंतर "ज्यादा विवाद मैं नहीं करना चाहता, कमार । है तो इतना है कि आपके क्षेत्र का विस्तार सीमित है, तुम अपने मन पर दृढ हो, तो मेरे राज्यमें न रह सकोगे। मेरे कार्यके लिये क्षेत्रकी कोई सीमा नहीं; और मरं मुझे तुम्हें अपना पुत्र मानतं रहनेमें भी लज्जित होने कार्य के शिकार कुछ छंट लोग होते हैं, जब कि आपका को बाध्य होना पड़ेगा । तुम्हारी याद भी मुझे दुःख राजत्व छोटे बड़े, हीन-सम्पन्न, स्त्री-पुरुष, बच्चे-बढ़े- पहुँचाएगी । मुझे बड़ा दुःख है कि तुमसमझदार होकर सबको एकसा पीमता है । इसीलिये मुझे अपना भी नहीं समझना चाहतं ।” मार्ग ज्यादा ठीक मालुम होता है।" ___"यही कहनकी आज्ञा चाहता था, पिताजी अपनी ___ "कुमार, बहस न करो । कुकर्ममें ऐसी हठ भया- बातसे हटना ज़रूरी और इसलिये संभव मुझे नहीं वह है । राजा समाजतंत्र के सुरक्षण और स्थायित्वके दीखता, और पास रहकर आपके जीको क्लेश पहुँचात लिये आवश्यक है, चार उस तंत्र के लिये शाप है, रहना मेरे लिये और भी असंभव है । इसलिये मेरी घुन है, जो उसमें से ही असावधानता से उग पठता इच्छा थी कि गज्यसे बाहर जानकी श्राप मुझे आज्ञा है और उसी तंत्र को खाने लगता है।" दें। आज ही चला जाऊँगा । फिर कष्ट न दूंगा।" ___ "राजा उस तंत्र के लिये आवश्यक है ! क्यों पिताने कहा: आवश्यक है ? इसलिये कि राजाओं द्वारा परिपालित- "जाओगे तो जागो । हाँ, जरूर जाओ। इसीमें परिपुष्ट विद्वानोंकी किताबों का ज्ञान यही बतलाता मालूम होता है, तुम्हारा भला है । दुःखित होनेका भी है ? नहीं तो बताइये, क्यों आवश्यक है ? क्या काम नहीं, और यही मानकर संतोप मान लेना अच्छा गजाका महल न रहे तो सब मर जॉय, उसका है कि इस मार्ग से जो ठोकरें तुम्हें मिलेंगी उनमें एक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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